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________________ 2421 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन परिशिष्ट-2 नय के दो भेद हैं- द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय अथवा निश्चय नय और व्यवहार नय। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत -ये भी सात नय हैं। -जै.द. पा. को., पृ. 133 नाम-कर्म- जिस कर्म के उदय से जीव देव, नारकी, तिर्यंच या मनुष्य कहलाता है, वह नाम-कर्म है अथवा जो नाना प्रकार के शरीर की रचना करता है, वह नामकर्म कहलाता है। नामकर्म के 93 भेद-प्रभेद हैं। . -जै.द. पा. को., पृ. 134 निकल परमात्मा- ज्ञान ही है शरीर जिनका, ऐसे शरीर-रहित सिद्ध निकल परमात्मा हैं। निश्चय से औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस् और कार्माण नामक पाँच शरीरों के समूह का अभाव होने से आत्मा निःकल अर्थात् निःशरीर है। -जै.सि. को., भा. 3, पृ. 20 निर्जरा- जिस प्रकार आम आदि फल पक कर वृक्ष से पृथक् हो जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा को भला-बुरा फल देकर कर्मों का झड़ जाना निर्जरा है। यह दो प्रकार की होती है- सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा। -जै.द. पा.को., पृ. 1291 निमित्त- जो कार्य के होने में सहयोगी हो या जिसके बिना कार्य न हो, उसे निमित्त कारण कहते हैं। कुछ निमित्त धर्म-द्रव्य आदि के समान उदासीन भी होते हैं और कुछ गुरु आदि के समान प्रेरक भी होते हैं। उचित निमित्त के होने पर तदनुसार ही कार्य होता है। -जै. द. पा.. को., पृ. 138 नियमसार- 1. नियम से जो करने योग्य हो अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र को नियम कहते हैं। इस रत्नत्रय से विरुद्ध भावों का त्याग करने के लिए वास्तव में 'सार' ऐसा वचन कहा है। 2. आ. कुन्दकुन्द (ई. 127-179) कृत अध्यात्म-विषयक 187 प्राकृत की गाथाओं में निबद्ध शुद्धात्म-स्वरूपप्रदर्शक एक ग्रन्थ। इस पर केवल एक टीका उपलब्ध है- मुनि पद्यप्रभमल्लधारी देव (ई. 1140-1185) कृत संस्कृत-टीका) -जै. सि. को., भा. 2, पृ. 619 निश्चय-नय- जो अभेद-रूप से वस्तु का निश्चय करता है, वह निश्चय नय है। निश्चय-नय वस्तु को जानने का एक ऐसा दृष्टिकोण है, जिसमें कर्ता, कर्म आदि भाव एक-दूसरे से भिन्न नहीं होते। यह दो प्रकार का है- शुद्ध निश्चय-नय और अशुद्ध निश्चय-नय। निरुपाधि गुण और गुणी में अभेद-दर्शाने वाला शुद्ध निश्चय-नय है। सोपाधिक गुण और गुणी में अभेद दर्शानेवाला अशुद्ध निश्चय-नय है। -जै.द. पा. को., पृ. 142 नेमिचंद्र आचार्य- आप अभयनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे। मंत्री चामुण्डराय के निमित्त से आपने 'गोमट्टसार' नामक ग्रन्थराज की रचना की थी। आपकी अन्य कृतियाँ हैं- लब्धि-सार, क्षपणासार, त्रिलोक-सार, द्रव्य-संग्रह। यद्यपि अल्प गुर्वावलियों के अनुसार अन्य
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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