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________________ परिशिष्ट-2 है । पाँच स्थावर और त्रस - इन छह प्रकार के जीवों की दया न करने से और पाँच इन्द्रिय व मन आदि के विषयों से विरक्त न होने से अविरति बारह प्रकार की कही गई है। स्वरूप-संबोधन-परिशीलन - जै. द. पारि. को., पृ. 30 अष्टसहस्री - आ. समन्तभद्र ( ई. शती 2 ) द्वारा रचित आप्त-मीमांसा अपरनाम देवागम स्तोत्र की एक वृत्ति अष्टशती नाम की आ. अकलंक भट्ट ने रची थी। उस पर ही आ. विद्यानन्द ने (ई. 775-820) 8000 श्लोक - प्रमाण-वृत्ति रची, इस वृत्ति का नाम अष्टसहस्री है। असद्भूत — व्यवहार-नय-भिन्न वस्तुओं के बीच संबंध को बतानेवाला असद्भूतव्यवहार- नय है । जैसे-जैसे कर्म के निमित्त से होने वाली मनुष्यादि पर्यायें, रागादि विकारी-भाव और बाह्य वस्तुओं से संबंध का कथन करना अ- सद्भूत-व्यवहार- नय का विषय है। इसके दो भेद हैं- अनुपचरित असद्भूत और उपचरित असद्भूत । - जै. द. पारि. को., पृ. 32 अस्तित्व- प्रत्येक द्रव्य की अनादि-अनन्त सत्ता ही उसका अस्तित्व - गुण है । यह द्रव्य का सामान्य गुण है। - जै. द. पारि. को., पृ. 33 आ आकाश - खाली जगह (Space) को आकाश कहते हैं। इसे जैन दार्शनिकों ने एक सर्व-व्यापक, अखण्ड, अमूर्त द्रव्य के रूप में स्वीकार किया है। जो अपने अन्दर सभी /231 द्रव्यों को समाने की शक्ति रखता है। यद्यपि यह अखंड है, पर इसका अनुमान कराने के लिए इसमें प्रदेशों के रूप में खंडों की कल्पना कर ली जाती है। यह स्वयं तो अनन्त है, परन्तु इसके मध्यवर्ती कुछ - मात्र भाग या अल्प मात्र - भाग में ही अन्य द्रव्य अवस्थित हैं। उसके इस भाग का नाम लोक है और उससे बाहर शेष सम्पूर्ण आकाश का नाम अलोक है। - जै. सि. को. भा. 1, पृ. 229 आगम - जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे गये हितकारी वचन ही आगम हैं । आगम, सिद्धान्त और प्रवचन -ये एकार्थवाची हैं । - जै. द. पारि. को., पृ. 36 आज्ञा-सम्यक्त्व- भगवत् - अर्हत्-सर्वज्ञ-प्रणीत आगम मात्र के निमित्त से होने वाले श्रद्धान और श्रद्धावान् जीवों को भी आज्ञा - रुचि (आज्ञा- सम्यक्त्व वाला) कहा जाता है । - जै. ल., भा. 1, पृ. 187जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा को प्रधान मानकर, जो सम्यग्दर्शन होता है, उसे आज्ञासम्यग्दर्शन कहते हैं । - जै. द. पारि. को., पृ. 37 आप्त- वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी अर्हन्त-भगवान् आप्त कहलाते हैं । - जै. द. पारि. को., पृ. 40 आप्त-मीमांसा - तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण पर आचार्य समन्तभद्र (ई. शती 2 ) द्वारा रचित 115 संस्कृत श्लोक - बद्ध न्याय की दार्शनिक शैली से परिपूर्ण ग्रन्थ है, इसका दूसरा नाम देवागम स्तोत्र भी है। इस ग्रन्थ पर आचार्य अकलंक भट्ट द्वारा
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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