________________
2281
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
परिशिष्ट-2
1. क्षुधा, 2. तृषा, 3. भय, 4. रोष (क्रोध), 5. राग, 6. मोह, 7. चिन्ता, 8. जरा, 9. रोग, 10. मृत्यु, 11. स्वेद, 12. खेद, 13. मद, 14. रति, 15. विस्मय, 16. निद्रा, 17. जन्म, 18. उद्रेक (अरति)।
__-जै. सि. को., भा. 1, पृ. 141 अधर्म-द्रव्य- जो स्वयं ठहरते हुए जीव
और पुद्गल द्रव्यों के ठहरने में सहायक होता है, उसे अ-धर्म-द्रव्य कहते हैं।
-जै. लक्ष., खं. 1, पृ. 76 अध्यात्म-अमृत-कलश- आचार्य कुन्दकुन्द के महान् दार्शनिक ग्रंथ समयसार के छन्द, जिन्हें समयसार-कलश भी कहा जाता है, उस समयसार-कलश की एक टीकाआत्मख्याति के नाम से जानी जाती है। बीसवीं शती में पंडित जगन्मोहनलाल जी शास्त्री ने उपरोक्त आत्मख्याति टीका पर अध्यात्म-अमृत-कलश के नाम से हिन्दी में टीका की, जो श्री चन्द्रप्रभ दि. जैन मन्दिर, कटनी द्वारा वर्ष 1977 में ग्रन्थ रूप में प्रकाशित हुई। अनन्तवीर्य- 1. वीर्यान्तराय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने पर जो अ-प्रतिहत-सामर्थ्य उत्पन्न होता है, उसे अनन्तवीर्य कहते हैं।
-जै. ल., खं. 1, पृ. 2 अनन्तवीर्य-न्याय के उद्भट विद्वान् । कतियाँ-सिद्धि-विनिश्च य-वृत्ति, प्रभासंग्रहालंकार। समय ई. 975 1025। अनंतवीर्य- भूतकालीन चौबीसवें तीर्थकर।
अनंतवीर्य-भविष्यत्कालीन चौबीसवें तीर्थकर।
__-जै. सि. को., खं. 1, पृ. 60 । अनुवीचि-भाषण- विचार-पूर्वक बोलना। नीची वाग्लहरी को कहते हैं, उसका अनुसरण करके जो गाथा बोली जाती है, सो अनुवीचि-भाषण है। जिनसूत्र की अनुसारिणी भाषा अनुवीचि-भाषा है। पूर्वाचार्य कृत सूत्र की परिपाटी का उल्लंघन न करके बोलना, -ऐसा अर्थ है।
__-जै.सि.को., भा. 1, पृ. 107 अनेकान्त- एक ही वस्तु में परस्पर-विरोधी अनेक धर्मों की प्रतीति को अनेकान्त कहते हैं। जैसे- एक ही व्यक्ति पिता, पुत्र, भाई आदि अनेक रूपों में दिखायी देता है। इसीतरह प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मों से समन्वित है।
-जै. द. पारि. को., पृ. 16 अन्तरात्मा- जो देह और जीव द्रव्य को अलग-अलग मानते या अनुभव करते हैं, वे अन्तरात्मा माने जाते हैं। अन्तरात्मा तीन प्रकार के हैं- अ. शुद्धोपयोगी अप्रमत्तसंयत-मुनि उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं, ब. प्रमत्त-संयत-यति और देशव्रती श्रावक मध्यम अन्तरात्मा हैं तथा स. अविरतसम्यग्दृष्टि-जीव जघन्य अन्तरात्मा हैं।
_-जै. द. पा. को., पृ. 17 अन्तराय- त्यागी, व्रती और साधु-जनों की आहार-सामग्री में आहार लेने की क्रिया के दौरान नख, केश, चींटी आदि में से किसी के भी अकस्मात् निकलने या दिखने के कारण से बाधा का उत्पन्न हो जाना अन्तराय कहलाता है।
-जै. द. पा. को., पृ. 17