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________________ 2241 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन परिशिष्ट-1 आत्मा जो स्वयं करता, भाव राग-द्वेष को। आत्मा उन भावों से स जता, स्वयं वसु कर्म को। आत्मा तत्फल शुभाशुभ, कत करम भोक्ता स्वयं । आत्मा बहिरन्तोपाय ही, मुक्त कर्मों से स्वयं ।। 11 ।। निज शुद्ध आत्म-स्वरूप पाना, अंतरंग उपाय से । निज शुद्ध आत्म-स्वरूप, सम्यग्दर्श-ज्ञान-चारित्र से । निज शुद्ध आत्म-स्वरूप होगा, प्राप्त हो त्रय एकता। निज शुद्ध आतम-तत्त्व प्रति, श्रद्धान सद्दर्शन कहा।। 12 || सद् ज्ञान वह निज-पर प्रकाशे, दीपवत् त्रयलोक में | सद्ज्ञान निर्णिती सुसम्यक, स्वात्म पर त्रय लोक में । सद् ज्ञान चेतन औ' अचेतन, तत्त्व निश्चय रूप है। सद्ज्ञान तत् कश्चिद् अपेक्षा, प्रमिति पृथक् स्वरूप है।। 13।। उन्नतोन्नत सम्यक दरश, सद्ज्ञान की पर्या यों में । उन्नतोन्नत आश्रय है करता, थिर अचल स्व-स्वभाव में | उन्नतोन्नत माध्यस्थ्य-भावी, उदय सुख-दुःख काल में । उन्नतोन्नत वृद्धि करे माध्यस्थ्य, समता-भाव में ।। 14 || चारित्रं सम्यक् मैं अकेला, कोई न साथ सगा। चारित्र सम्यक् सुख व दुःख में, मात्र मैं ज्ञाता-दृष्टा। चारित्र सम्यक इस तरह हो, आत्म प्रति सुदृढ़ता। चारित्र सम्यक् वीतरागी, भाव में उत्कृष्टता ।। 15 || कारण जो देश-कालादि बाह्य, सहकारी कारण कहे । कारण जो अनशन आदि तप हैं, निमित्त सहकारी कहे। कारण जो मूल उपादान के, सहकारी कारण हैं सभी। कारण जो सहकारी अरे हैं, उपाय बहिरंगी यही।। 16 ।।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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