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________________ श्लो. : 25 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 1211 कठिन मार्ग है, इस पर ठहरना दुर्लभ है, इसलिए वहाँ से च्युत हुआ जीव भवनों का आलम्बन लेकर समय को पूर्ण कर रहा है, समय (आत्मा) से दूर होकर स्व-समय में प्रवेश हो जाए, तो क्यों कोई जीव भवनों का त्याग करके भवन-निर्माण में निराकुल-मार्ग जिन-दीक्षा का व्यय करेगा?... साधको! धन्य है कि त्रिलोक-पूज्य अरहन्त-मुद्रा को आप कैसे भिखारी/ठेकेदारी की मुद्रा में देखते हो?.... इतना साहस कैसे प्राप्त किया?... पूर्वाचार्यों ने तो इस मुद्रा का प्रयोग मात्र स्वानुभूति में किया था, -ऐसा लगता है कि वर्तमान-युग विपर्यास-युग ही है, गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य-परीक्षण के लिए सोनोग्राफी यंत्र का प्रयोग था, परन्तु अल्पज्ञ अर्थ-लोलुपी, विषय-लोलुपी, हिंसक जीवों ने लिंग-परीक्षण में प्रयोग कर अनेक भावी भगवान्-आत्माओं के साथ क्रूर व्यवहार करके हिंसक कर्म कर तीव्र पाप का संचय किया है, उसीप्रकार जिन-मुद्रा निर्वाण-श्री की प्राप्ति के लिए थी, परन्तु प्रज्ञा-विहीन जीवों ने इस पावन-पवित्र-मुद्रा का प्रयोग भवनों के निर्माण में लगाकर इसे अपमानित किया है व तत्त्व-ज्ञान के साथ अनाचार हुआ है। लौकिक कार्य तो जीव ने अनादि काल से किये हैं, उनसे मुक्त होने के लिए ही साधक संयम की आराधना करता है, आराधना-काल में विराधना से आत्म-रक्षा प्रयत्नपूर्वक करता है। ____अहो ज्ञानियो! मोक्ष-मार्ग अत्यन्त विशुद्ध मार्ग है, आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने सराग-अवस्था में जिन-पूजा आदि का उपदेश देने को तो कहा है, जिन-भवन की रक्षा करो, वृद्धि करो, यहाँ तो आचार्यों की आज्ञा है, परन्तु अन्य भवनों के लिए उपदेश भी संयमाचारण में मलिनता का जनक है, जिन-मुद्रा के प्रभाव का प्रयोग सम्यग्रूपेण करना, इसे भौतिक द्रव्यों की प्राप्ति में नहीं कर लेना। अभेद-मार्ग की ओर ले जाने वाली मुद्रा है, भेद-भावना भाते-भाते तो अनन्त काल व्यतीत हो गया, परन्तु अभेद-भावना के अभाव में निर्वाण-श्री का मिलन नहीं हुआ, द्वैत-भाव प्रारंभ अवस्था में तो उपादेय है, परन्तु परम उपादेय-भूत अद्वैत-भाव पर भी दृष्टि जाना चाहिए, द्वैत से ही जीव संतुष्ट हो गए, -ऐसा लगता है। संयम-साधना के काल में साधक को एक निश्चित समय के बाद बाह्य-प्रभावना से भी दृष्टि हटाकर अन्तरंग-प्रभावना में लगाना चाहिए, अद्वैत-भाव अन्तरंग-प्रभावना है, बहिरंग-प्रभावना में भी जिन-धर्म एवं आत्म-धर्म का लक्ष्य है, तो ही प्रभावना संज्ञा है, पर्याय का राग कहीं है, तो ज्ञानी स्व-तन का प्रचार है, न-कि चैतन्य का कल्याण, न जन्म-जयंती स्वयं मोक्ष-मार्ग है, न चित्रों की छपायी मोक्ष-मार्ग है, मोक्ष-मार्ग तो एक-मात्र विशुद्ध रत्नत्रय की साधना है।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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