SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 200/ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 23 विराजता है, वह निराकुल, निरालम्ब ध्यान को ही अपना ध्येय स्वीकारता है, वह सुर-दुर्लभ योगी की मुद्रा को जड़ मुद्राओं में न्योछावर नहीं करता, जगत् की अंगनाओं से दूर निजात्म-अंगना में लीन, ऐसा परम-विशुद्धि मात्र का परिग्रह-धारी सच्चा मुमुक्षु होता है। चर्या, क्रिया, चर्चा, जिसकी एक-तुल्य होती है, वे जगत्-पूज्य निर्ग्रन्थ तपोधन धन्य हैं, उनके पाद-पंकज की बलहारी है। ___यही श्री-गुरु का उपदेश है- आत्म-धर्म स्वाधीन है, पुनः समझो, स्वात्म-धर्म में पर की अधीनता नहीं है, जब-तक साधक आत्मस्थ नहीं होता, तभी-तक पर का आलम्बन है, तभी-तक चार मंगलोत्तम शरण-भूत हैं, स्वात्म-स्थ होते ही एक मात्र आत्मा का शरणभूत है, अन्य अन्य ही है, अन्य में किञ्चित् भी अनन्य-भाव नहीं है। ऐसा सर्वज्ञ-जिन का उपदेश है। आकांक्षाएँ लोक में सुलभ हैं, चित्त एक-क्षण भी शान्त नहीं रहता, यह किसी न किसी विषय पर जाता है, गमन चित्त का हो ही रहा है, तो-फिर गमन-मार्ग को तो तू बदल सकता है, ज्यादा कुछ नहीं करना, गमन को नहीं रोक पा रहा, तो मार्ग तो परिवर्तित कर सकता है, जो गमन पर में था, उसे निज की ओर कर दो, अन्य-मार्गों में जाने के लिए बाहर जाना होता है, स्वात्म-प्रदेशों में गमन-करना यानी आत्म-निष्ठ होकर माध्यस्थ्य-भाव वाले हो जाओ, उपेक्षा-भाव को प्राप्त हो जाओ। हे तात्! वह उपेक्षा-भावना भी अपनी आत्मा में विद्यमान होने से यदि सुलभ है, ऐसा विचार हो जाता है, तो स्वाधीन-सुख-रूप फल में पुरुषार्थ क्यों नहीं करते हो? ___ परम ध्रुव भूतार्थता को क्यों नहीं स्वीकारते, आत्म-धर्म के निकट जाने के लिए सभी अन्य निकटताओं से दूरी बनाना अनिवार्य है, बिना पर से भिन्न हए आत्म-निकटता बनती ही नहीं, सबसे सुलभ-मार्ग माध्यस्थ्य-भाव है, उपेक्षा भाव है, उसकी प्राप्ति के लिए किसी तीर्थ या सागर, सरोवर में जाने की आवश्यकता नहीं है, न किसी अन्य से उसके बारे में पृच्छना करने की ही आवश्यकता है, वह त्रैकालिक आत्मा में ही है, अनादि काल से मिथ्यात्व-अविद्या के वश होकर जीव ने ध्यान नहीं दिया, पर-भावों के रस-स्वाद में इतना लीन रहा कि आत्मामृत को नहीं पा सका। अब तो सद्-गुरुओं के उपदेश से जान लिया है कि मेरे अन्दर साधु-स्वभाव विराजता है, उस भगवद्स्वभाव की प्राप्ति में ही अब पुरुषार्थ क्यों न किया जाय, मेरे तात! नाना पापासव के कारणों का जो पुरुषार्थ किया, उसका फल संसार ही है, आत्म-स्थता का पुरुषार्थ मोक्ष-फल में फलित होने वाला है, -ऐसा समझना।।२३।। ***
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy