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________________ श्लो. : 22 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन | 189 होगा?... सुधी-जन विषयों की ज्वाला से आत्म-रक्षा किया करते हैं, वहीं मूढ़ विषयों की अभिलाषा में जला करते हैं। क्या करें? .....विधि विचित्र है, जीव की भवितव्यता पर भाव भी निर्भर करते हैं, होनहार जिसकी बिगड़ चुकी है, उसकी भावना भी बिगड़ जाती है, अशुभ कर्मोदय के काल में पुरुष का पुरुषार्थ भी अशुभ-रूप ही चलने लगता है, सोच-विचार भी शुचिता को छोड़ देता है, क्या आश्चर्य की बात है! विपाक अशुभ तो है ही, विचार भी अशुभ होने लगते हैं, सत्यार्थ-मार्ग तो उसे दृष्टिगोचर ही नहीं होता। पुण्य की क्षीणता में विचार भी विनाश को प्राप्त हो जाते हैं। सत्यार्थ-बोध, तत्त्व-निर्णय, तत्त्व-चिन्तवन पुण्योदय पर घटित होता है। ज्ञानियो! पापोदय में प्रज्ञा ही कार्य नहीं करती, तो चिन्तवन क्या करेगा, जब सम्यक् पुरुषार्थ के साथ सम्यक् तत्त्व-श्रद्धान होगा। तभी बोध, बोधि और समाधि तीनों की प्राप्ति होगी, मुमुक्षुओ! तत्त्व-श्रद्धान तभी घटित होगा, जब तत्त्व-प्रतीति होगी, बिना प्रतीति के आस्था बन ही नहीं सकती। जब जीव के पूर्व का कुशलोदय पुण्योदय होता है, तभी वर्तमान में कुशल कार्यों में मन स्थिर होता है, जिसका अशुभोदय चल रहा है, उसका शुभ कार्यों में भी भाव नहीं लगता, अन्य किसी से प्रश्न करने की आवश्यकता नहीं है कि मेरा भव कैसा होगा?... अरे! वर्तमान का भाव ही तो भविष्य का भव है, प्रत्येक जीव का भव उसके भावों में दिखता है, शान्त-भाव से स्वयं ही वेदन करे, तो उसे स्वयं ज्ञात भी हो जाता है कि मेरा आगामी भव क्या हो सकता है?..... कषाय-अंश, लेश्या-स्थान कैसे चल रहे हैं, –यह वेदन करो, न यहाँ जिन-लिंग देखना, न ग्रही-लिंग, दोनों देहाश्रित हैं, आत्म-धर्म एवं भव-परिवर्तन भावाश्रित हैं; भाव की विशुद्धि के लिए लिंग स्वीकार किया जाता है, पर लिंग से भाव विशुद्ध हो ही जाते हैं, -ऐसा नियम नहीं है- पर भाव-विशुद्धि का प्रतीक भी लिंग ही है, बिना लिंग धारण किये तद्रूप विशुद्धि भी नहीं बनती, परंतु अंतरंग-उपादान भी निर्मल होना अनिवार्य है, उपादान के सहचर-रूप लिंग की आवश्यकता है। श्रेष्ठ-लिंग धारण करके भी प्रवृत्ति एवं परिणति यदि दोनों में विपर्यास है, तो लिंग वैसे ही स्वीकारना है, जैसे- शिकारी के लिए जंगल में झाड़ी, शिकार करने में आलम्बन है, शिकारी झाड़ी में छिपकर मृग पर तीर चलाता है अथवा जाल डालता है, वैसे ही स्व-वंचक त्यागी-व्रती जिन-लिंग धारण कर उसे झाड़ी रूप से उपयोग करता है, यदि भावों में चारित्र पालन रूप परिणाम नहीं हैं, तो भेष में छिपकर पापाचार में लिप्त होता हुआ वीतराग-धर्म-रूप शान्त-परिणाम-भूत मृग पर काषायिक
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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