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________________ श्लो. : 21 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन / 185 भगवान् आत्मा अब कभी भवांकुर को प्राप्त नहीं होगी, सदा-सदा के लिए दग्ध-बीजवत् कर्म-बीज की शक्ति से रहित हो जाएँगे; पर जब-तक तृष्णा की तपन है, तब-तक भव-बीजों का अंकुरण अनवरत है, इसमें शंका नहीं करना, शुद्ध निश्चय-नय से ज्ञायक-भाव मात्र इस ध्रुव आत्म- द्रव्य का स्वभाव है, पर से अस्पर्श असंयुक्त-भाव है, ज्ञानानुभूति ही आत्मानुभूति है, आत्मानुभूति से भिन्न कोई ज्ञानानुभूति नहीं है, पर अज्ञ प्राणी तृष्णातुर हुआ शुद्धात्मानुभूति का आनन्द प्राप्त कर भी कैसे पाता है ? ... निज ज्ञान-गुण को विषयों की तृष्णा में लगाकर चिदशक्ति से अपरिचित हो रहा है। अहो! अहो! तत्त्व की गहराई में उतरकर चिन्तवन करो, जब विषय - तृष्णा में चित्त लीन होता है, तब तन्मय हो जाता है, उस समय आत्मा की ज्ञान-धारा विषयासक्त हो जाती है, जैसे- रज से आच्छादित दर्पण में चेहरा दिखायी नहीं देता, उसीप्रकार विषयों की रज से आच्छादित चित्त में निज स्वानुभूति का दर्शन नहीं होता, जो आत्मा का सत्यार्थ-धर्म है, उसे ही जीव भूल रहा है। जब जीव विषयासक्त होता है, तब ऐसा लीन होता है कि जगत् के अन्य संबंधों को भूल जाता है, ऐसी लीनता स्वात्मा में हो जाती, तो क्यों विषयों की पंक में निज धर्म को धूमिल करता । अहा, हा हा! क्या राग की महिमा, जो जन्मदात्री जननी को भी छोड़ देता है, शरीर का ध्यान नहीं, धर्म का ध्यान नहीं, जाति, कुल, परम्परा सबको भूल कर नाली के कीड़े के तुल्य मल-मूत्र के लिए बड़े जघन्य निम्न स्थान पर रमण को प्राप्त होता है, जिन्हें स्वयं अविकारी भाव से देखना तो ठीक, नाम लेना भी लज्जा को उत्पन्न कराता है। ज्ञानी! जो विषय-तृष्णा है, वह इतनी संताप देती है कि उसके संताप को दूर करने के लिए चन्दन के छींटे, निर्मल शीतल नीर, सुगंधित समीर, कोमल शय्या भी कारगर नहीं है, चंद्रमा की चाँदनी भी उसे दग्ध कर देती है । यह काम की व्यथा भी विकराल है, वह न मनुष्यता रहने देती है, न देवत्व को, सत्यता तो कामी के पास अपना मुख भी दिखाने नहीं आती, कामी के पास कोई सत्यता नहीं रहती । कारण यह है कि जब काम की बाधा से व्यक्ति पीड़ित होता है, तब वह जीव अपने सम्पूर्ण पवित्र मार्ग की मर्यादाएँ तोड़े हुए होता है और अपवित्र मार्ग से हटना चाहता नहीं है, पिता के द्वारा पुत्री पर, भाई के द्वारा भगिनी पर एवं पुत्र- वधु पर ससुर की कुदृष्टि के दृष्टान्त जब लोक में सुनते हैं, तब समझ में आता है कि अहो! तूने जगत् में कोई पवित्र स्थान नहीं छोड़ा, पर कुदृष्टि डालने वाले पुत्री से पुत्री का ही व्यवहार कर रहे हैं, क्या यह सत्यता है? .. भाव - ब्रह्म की खोज की जाये, तो ज्ञानी! जगत् में महामारी-जैसी
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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