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________________ श्लो . : 20 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 1177 उपलब्धि त्रैकालिक संभव नहीं है, -ऐसा ध्रुव सत्य समझो, जिसने भी ध्रुव, ज्ञायक-स्वभाव को प्राप्त किया है, वे-सब भिन्नत्व-स्वभाव के ध्यान से ही प्राप्त हुए हैं। त्रिकाल, त्रिजगत् में बिना एकत्व-विभक्त-स्वभाव के ध्यान के आत्मा शुद्ध, ध्रुव, भूतार्थ, अशरीरी-स्वभाव को प्राप्त नहीं हो सकता। अशरीरी-भगवान् बनने के लिए पर-भावों की अपेक्षा को उपेक्षा-भाव से देखना होगा, जहाँ भिन्न भावों से अपेक्षा-भाव रखा नहीं कि निज स्वभाव से उपेक्षा हो जाती है। ज्ञानी! तेरे पास दो उद्यान हैं- 1. निज आत्म-भाव का, 2. पर-भाव का, आम्र-वन एवं निम्ब-वन के तुल्य, आम्रवन को खाद-पानी देता है, विशिष्ट ध्यान रखता है तो निम्ब-वन सूखता है और निम्ब-वन को पानी देते हैं, तो आम्र-वन सूखता है, आम्र-वन निज आत्म-द्रव्य, निम्ब-वन पर-द्रव्य है, एक मधुर-रस-प्रधान है, दूसरा कटुक, अब स्वयं पुनः चिन्तवन करोक्या श्रेष्ठ है, मधुर रस या कटु?.... दोनों के मध्य तू है। कटु-रस-सेवी की वर्तमान में ही मुख-मुद्रा विकृत देखी जाती है। मधुर-रस-सेवी का मुख-मण्डल प्रमुदित दिखता है, उसीप्रकार कटु-रस स्थानीय पर-भावों की अनुभूति है, मधुर-रस स्थानीय स्वानुभूति है। आत्म-द्रव्य की, स्वानुभूति ही ज्ञानानुभूति है, ज्ञानानुभूति ही आत्मानुभूति है, स्व-समय की प्राप्ति का सहज-मार्ग ज्ञानानुभूति में लीन रहना है, पर-भाव राग-द्वेष के उत्कृष्ट साधन हैं। निजानुभूति परम निर्वाण-श्री की श्रेष्ठ-हेतु है। दोनों मार्ग आपके नयनों के सामने प्रत्यक्ष दिख रहे हैं। अब आप स्वयं स्व-विवेक से निर्णय करें कि करना क्या है?... अपनी सुगति या दुर्गति?.... यह स्वयं के हाथों में ही है, अन्य कोई कुछ भी करने वाला नहीं है। एक ध्रुव आत्मा ही स्वयं का कर्ता-भोक्ता है। अहो प्रज्ञ! स्व-प्रज्ञा को ब्रह्म बनाओ, उसे व्यभिचारी नहीं बनाओ, शरीर का गुण-दोष नहीं होता, प्रज्ञा में ही गुण-दोष के दर्शन हैं, तन न गुण-दाता है, न दोष-प्रदाता है, प्रज्ञा निर्मल रहे, -ऐसा ही पुरुषार्थ प्रतिक्षण होना चाहिए। जब भी भगवद् चरणों में जाए, चाहे निर्ग्रन्थों के पाद-मूल में पहुँचे, चाहे अर्हन्-मुख-कमल-वासी सर्वज्ञ के मूल में विराजे, सर्वत्र एक ही भावना भाना, अहो भगवद् सर्वज्ञ देव, निर्ग्रन्थ गुरु! वीतरागी-कथित जिनवाणी में एक इच्छा लेकर आया है, मेरी प्रज्ञा में दोष न लगे, अन्तिम श्वासों तक प्रज्ञा प्रशस्त रहे, तन नष्ट हो भी जाए, पर प्रज्ञा नष्ट न हो। आत्मा की प्रधान-शक्ति प्रज्ञा है, जितने पुरुष बन्ध को प्राप्त हुए हैं, वे-सब प्रज्ञा के विपर्यास से ही हुए हैं और जितने भी सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, वे-सब प्रज्ञा की सम्यक् प्रवृत्ति से ही हुए हैं। विश्वास रखना- मुमुक्षुओ! छल, कपट, मायाचारी, वंचक-वृत्ति,
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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