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________________ 1721 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 19 विपर्यास क्यों? ........जो श्रुत आत्मस्थ होने के लिए था, उसका प्रयोग पर की आलोचना और स्व-प्रशंसा के व्यय में किया जा रहा है। यह तो ध्रुव सत्य है, श्रुतवान् हो, तो आप पुण्यवान् भी हैं, जो-कि जिनवाणी का बोध प्राप्त है, पर उसे व्यर्थ में नष्ट न करके आत्म-हित में उसका प्रयोग करो। जिस पर कलम चलाते हैं आप, वह भी भावी भगवान् हैं और आप चित्-चैतन्य-शक्ति-सम्पन्न भगवान् आत्मा हैं, यदि भव्य हैं, तो दोनों भगवान् बनेंगे । अहो हंसात्मन्! हेय-उपादेय की स्थिति को ठीक से पहचानो, पर-भावों में जो कुशलता समझ रहे हैं आप, वह भूतार्थ से देखें, बन्ध-व्यवस्था पर विचार करो, क्या इससे आप बन्ध को प्राप्त नहीं होगे?... क्या-कर्म-सिद्धान्त के साथ आपकी कोई मित्रता है?... जिससे वह आपको छोड़ देगा, .......मेरे मित्र! मेरी बात मान लो, मरण के पूर्व मान कषाय को समाप्त कर स्वानुभव पर ध्यान दो, यह तेरा ज्ञान-धन वैभव है। हे प्रज्ञ! तेरे-सा अहो! भाग्यशाली कौन होगा, जो माँ भारती की गोद में खेला हो, पर साधु-पुरुषों की आलोचना करके भगवती माँ जिनवाणी की गोद को कलंकित नहीं करना, परम उपादेय-भूत टंकोत्कीर्ण ज्ञायक-भावी भगवती की आराधना करो। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग ये पाँच प्रत्यय हेय-तत्त्व हैं, जो-कि आस्रव व बन्ध तत्त्व में निहित हैं। शोक, भय, जुगुप्सा, हास्य, रति, अरति, स्त्री-वेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, अनन्तानुबंधी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान, संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभ, –ये पच्चीस कषाय हैं, इन्हें हेय समझो। सारा विश्व इनके कारण ही संसार-सागर में डूब रहा है, यदि ये जीव कषाय करने वाले की ही खोज करने लगें, तो कषाय समाप्त हो जाए। कषाय-काल में जीव पर के ऊपर दृष्टि रखता है, निमित्तों पर अग्नि उगलता रहता है, जबकि उनका कुछ न भी बिगड़े, पर कषायवान् तो जल ही रहा है, अध्यात्म यह भी कहेगा कषाय काल में तू अग्नि है, स्वयं को जला रहा है, तुझे क्या प्रज्ञावान कहें या अज्ञानी, ध्रुव क्षमा-धर्म तेरा कहाँ गया?... अहो मुमुक्षु! अकषाय, अप्रमाद, व्रत-परिणाम, सम्यक्त्व-भाव, योग की निर्मलता, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य, ब्रह्मचर्य-भाव-चारित्र के पालन की परिणति ही उपादेय-तत्त्व है। व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, परीषह-जय, अनेक चारित्र जो कि भाव-संवर तत्त्व हैं, वे परमार्थ-भूत परम-उपादेय हैं, संवर के अभाव में निर्जरा भी कार्यकारी नहीं होती, संवर-पूर्वक होने वाली निर्जरा ही मोक्ष-तत्त्व की सिद्धि कराने वाली है। तत्त्व-ज्ञान, तत्त्व-निर्णय करना अनिवार्य है, जो जीव मोक्षमार्ग
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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