SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 168/ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 19 छोड़कर चला जीव, पर अहो! क्या माया की माया है, यहाँ समाज के धन के टुकड़ों में संतुष्ट होने लगा, क्या साधना के मार्ग में धन भी आवश्यक है?.....नहीं, साधना तो आकिञ्चन भाव में है, तन-धन का राग तो हेय ही है। साधु-पुरुष जिसे हेय कहते हैं, रागी उसे ही उपादेय मानकर लिप्त हो रहे हैं, जिस दिन जीव ध्रुव ज्ञायक-भाव को अन्तःकरण से समझ लेगा, फिर तन-धन का राग स्वयमेव चला जाएगा। ज्ञानियो! यथार्थ बात तो यह है कि त्याग-मार्ग के पूर्व त्यागी स्वरूप का बोध होना चाहिए, क्या करूँ?...संस्कार कर्त्तापन के हैं, वे ही दिख जाते हैं, जब-तक कर्त्ता का भाव हृदय में निवास करेगा, तब-तक एकमेव विभक्त भगवान् आत्मा का बोध नहीं हो सकता, पुण्य-क्रियाओं के कर्ता-पन से, समय ही नहीं है, निज में ध्रुव, ज्ञायक-भाव के लिए विश्वास रखना- अर्थ-व्यवस्था और आत्म-धर्म-व्यवस्था अत्यन्त भिन्न है। जो शुद्ध जैन-दर्शन है, वह तो अति-सूक्ष्म है, शान्त-चित्त से स्थिर होकर समझनाआपको लगेगा, कहीं भ्रमित तो नहीं हो रहे। इसलिए पूर्व में ही संकेत किया है, आत्म-धर्म की ओर निहारो और जगत् के प्रपंचों को भी देखो, दुग्ध से दधि, दधि से तक्र कितना होता है और तक्र से मक्खन, मक्खन से शुद्ध-घृत बहुत ही कम होता है, पर सर्व-श्रेष्ठ गो-रस की पर्याय है, जिसे आयुर्वेद में जीवन कहा है, आयु कहा है, शीतल-धर्मी बुद्धि-वर्धक रसायन है- हाँ, स्पष्ट समझना गो-रस की पूर्व-पर्यायों के अभाव में घृत पर्याय की उत्पत्ति संभव नहीं है, लेकिन परम-उपादेय तो घृत-पर्याय ही है, यहाँ विषय को एकान्त से नहीं, अनेकान्त से समझते चलना; निश्चय-वाद व व्यवहार-वाद दोनों से आत्म-रक्षा करना, यहाँ दोनों की आवश्यकता दिखा दी है, यदि घृत-पर्याय परम-उपादेय है, तब शेष पर्यायें हेय दिख रही हैं, लेकिन प्रथम पर्याय गो-रस की दुग्ध है, यदि वे न होतीं, तो घृत-पर्याय कैसे होती? ....इसलिए भविष्य-पर्याय के पूर्व वर्तमान-पर्याय उपादेय है, भूत-पर्याय हेय हो गई, अपने-अपने समय पर सभी पर्यायें उपादेय हैं। ज्ञेय तो प्रति-समय प्रत्येक पर्याय है, होता ये है, जब शुद्ध-कथन करते हैं, तब एकान्त से अशुद्ध का अभाव करने लग जाते हैं, वे वक्ता वस्तु-स्वरूप को नहीं समझते। होना यह चाहिए कि अशुद्ध-पर्याय को गौण करके शुद्ध-पर्याय का कथन करें, अशुद्ध-पर्याय की सापेक्षता से ही शुद्ध-पर्याय का सत्यार्थ-कथन होता है, शुद्ध में अशुद्ध का मिश्रण नहीं करना, अद्वैत-भाव पर-भाव से भिन्न रहता है। अद्वैत-भाव अन्य से अत्यन्ताभाव है, अ-द्वैत की साधना ही श्रेष्ठ साधना है, द्वैत-साधना है, साधना का कारण है, परन्तु कार्य-भूत साधना अ-द्वैत ही है, योगीश्वर
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy