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________________ xii / स्वरूप-संबोधन-परिशीलन प्रकाशकीय - 1 मुझे भी कुछ कहना है...... जैन न्याय एवं आध्यात्मिक ग्रन्थों के सर्जक आचार्य अकलंकदेव विरचित लघुका ग्रन्थ "स्वरूप-संबोधन" को जिनागम के रहस्यों का सार कहा जा सकता है, जिसकी मात्र 25 गाथाएँ हमें अपने सच्चे स्वरूप का दर्शन कराती प्रतीत होती हैं । अध्यात्म-विज्ञान से ओत-प्रोत इस लघुकाय ग्रन्थ "स्वरूप - संबोधन" में आचार्य अकलंकदेव ने मानों गागर में सागर ही भर दिया है, जिसकी महिमा अवर्णणीय है । ऐसे ग्रन्थ पर वर्तमान के वर्धमान और बहु-आदरित अध्यात्म-योगी आचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज ने सहज, सरल शैली में टीका लिखकर स्वाध्याय - रसिकों पर महान् उपकार किया है। निश्चित ही आचार्य अकलंकदेव की मूल - कृति “स्वरूप-संबोधन” की तरह आचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज द्वारा सृजित यह टीका भी जैन साहित्य की अमूल्य निधि बनेगी, - ऐसा विश्वास है । आचार्य श्री जब इस ग्रन्थ की टीका लिख रहे थे, तभी उसके कुछ पृष्ठ मुझे पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, पढ़कर अभिभूत हुआ और उसी क्षण मैंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन में अपने द्रव्य का सदुपयोग करने का मन बना लिया था तथा तदनुसार पूज्य आचार्य श्री के समक्ष अपनी भावनाएँ व्यक्त कर उनसे आशीर्वाद प्रदान करने का निवेदन भी किया था और उसी का यह सुफल है कि दि. जैन समाज, सतना ने ग्रन्थ-प्रकाश में मुझे भी सहयोगी बनाकर मुझे अनुगृहीत किया है, जिसका मैं आभारी आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज जिनवाणी के प्रखर प्रस्तोता और प्रभावी प्रवचनकार के साथ-साथ आगम और अध्यात्म के गूढ़तम रहस्यों के भी ज्ञाता हैं और उनकी अनेक आध्यात्मिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। आचार्य श्री के लेखन / प्रवचन का यह वैशिष्ट्य ही है कि वे हस्त-गत विषय - सम्बन्धी कथन, लेखन एवं प्रवचन को बोलचाल की आम भाषा और आगम के आलोक में विभिन्न उद्धरणों के माध्यम से रोचकता और प्रामाणिकता प्रदान करते हुए उसे बोधगम्य बना देते हैं। जिससे
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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