SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्लो. : 18 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन विषय है, वह अनुयोग उसी की प्ररूपणा करता है, पर भिन्न अनुयोग का निषेध नहीं करता, पर अज्ञ जीव एक अनुयोग विशेष पर दृष्टि करके, दूसरे अनुयोग के विषय पर विपरीत अभिप्राय करके, श्रुत का अवर्णवाद करके दर्शन - मोहनीय कर्म आस्रव को प्राप्त होते हैं। संसार की दीर्घा में अपना नाम स्वयं अंकित करा लेते हैं, जब विपाक-काल आता है, तब गंगा-यमुना-जैसी नयनों में अश्रुधारा बहाते हैं, आस्रव - काल में ही स्वयं को सँभालकर रखते, तो फिर क्यों व्यर्थ में अश्रुपात करना पड़ता । पूर्व पुण्योदय के मध्य जीव सत्य-स्वरूप को भूल जाता है, अनागम को आगम की श्रेणी में रखने का कुप्रयास करता है, पर जब अन्तिम समय जीव का आता है, तब हाय-हाय करके श्वास निकलती है, तब मालूम चलता है कि अनागम के कथन में कितना कष्ट होता है, असमाधि-पूर्वक मरण होता है और दुर्गति में गमन होता है, फिर याद आती है कि मैंने स्व-प्रज्ञा के बल पर श्रुत का विपर्यास किया था, उसी का परिणाम आज प्रत्यक्ष में अनुभूत हो रहा है । I ज्ञानियो! विश्वास रखना श्रुत का अवर्णवाद करने वाला आत्म-शान्ति को प्राप्त नहीं होता। साम्य-भाव से समाधि तो उसकी संभव ही नहीं है । सर्वप्रथम वक्ता को चाहिए कि शब्द- माधुर्य के साथ अर्थ की भूतार्थता पर दृष्टि रखे; अन्यथा वक्ता के सम्पूर्ण शब्द किंशुक (टेशु) के फूल समान ही रहेंगे। मनीषियो ! जो किंशुक पुष्प हैं, वे देखने में बहुत सुंदर लगते हैं, परन्तु सुगन्ध - विहीन होते हैं । इसीप्रकार कुछ वक्ता, कवि शब्द-सौष्ठव तो अच्छा करना जानते हैं, पर अर्थ- शून्य होते हैं। शब्दागम अर्थागम के लिए है, जिस शब्दागम में अर्थागम नहीं है, वह शब्दागम चैतन्यता - रहित शरीर के सदृश समझना चाहिए । आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने ग्रन्थों में वस्तु स्वरूप का कथन करते हुए सर्वत्र यह कहा है कि द्रव्यों का परिणमन सहज है, सहज स्वभाव पदार्थ का है, अतः व्यर्थ के राग-द्वेष का त्याग कर परम उदास भाव का आश्रय लो। ......पर अज्ञ प्राणी सहज स्वरूप के स्वरूप को ही नहीं समझ पाये और स्वच्छन्द प्रवृत्ति में प्रवृत्त हो गए, अहो! छद्म प्राणियों ने कैसे जिन - वचन के साथ स्व-वचनों की पुष्टि कर निज प्रज्ञा के व्यभिचार का विचार किया हैं । अर्थ की वंचना कोई क्या करेगा, स्वयं की, पर की ही वंचना होगी, शब्द का स्वयं के अनुसार अर्थ कर लेने से वस्तु वैसी तो नहीं होती, न सत्यार्थ - भूत शब्द का अर्थ ही वैसा होता है । शब्द, अर्थ और पदार्थ का स्वरूप जैसा है, वैसा ही रहेगा, किसी के द्वारा अन्यथा कहने से पदार्थ अन्यथा-रूप नहीं होता, वह तो जैसा रहता है, वैसा ही रहता है, किसी के अन्तःकरण I /159
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy