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________________ श्लो. : 15 समाधान कर लेना चाहिए कि सम्यक्त्व तो आत्म- गुण है, उसके लिए पर-हेतुओं की क्या आवश्यकता है? 138/ स्वरूप- संबोधन - परिशीलन ज्ञानियो! सिद्धान्त - शास्त्र बोल रहा है कि क्षायिक सम्यक्त्व के लिए केवली, श्रुत- केवली का पाद-मूल चाहिए, दोनों पर- प्रत्यय हैं, फिर अब क्या कहोगे ? निमित्त कुछ नहीं करता, सिद्धान्त कहाँ गया ? .... अरे भाई ! निमित्त पर- द्रव्य - रूप नहीं होता, बाह्य-निमित्त उपादान-रूप परिणत नहीं होता, परन्तु उपादान के परिणमन में सहकारी अवश्य होता है; समझो - केवली, श्रुतकेवली के मूल में परिणामों की विशुद्धि में वृद्धि होती है, बिना विशुद्ध भावों की वृद्धि के क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता; उपादान -दृष्टि से तो आत्मा की परिणति ही सम्यक्त्व है, परन्तु उस परिणति को प्रकट करने में पर- प्रत्यय अनिवार्य है। भोग- भूमि में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता, - ऐसा नियम है, क्यों नहीं होता ? ..... तो ज्ञानी! क्यों का भी समाधान है, केसर की खेती मरुस्थल, मध्य भारत, दक्षिण भारत में क्यों नहीं होती है ? .....ज्ञानी ! विवेक तो लगाओ, तदनुकूल जलवायु नहीं है, उसीप्रकार भोगभूमि में क्षायिक सम्यक्त्व के योग्य क्षेत्र स्थित नहीं है । भोग-भूमि में संयम-पालन की भी योग्यता नहीं होती, जब भरत - क्षेत्र में भोग- भूमि का काल होता है, तब यहाँ पर भी जीव चारित्र धारण नहीं कर पाता, कर्म-भूमि का अर्थ ही यह है कि जिसके सद्भाव में जीव शुभाशुभ कर्म करके शुभाशुभ-गति में गमन करता है । जब पूर्ण- वीतराग चारित्र से युक्त हो परम - शुद्धोपयोग में लीन होता है, कर्त्तापन से पूर्ण शून्य हो जाता है, तब यह जीव इसी कर्मभूमि से निःश्रेयस् सुख को प्राप्त होता है । विदेह-क्षेत्र में सर्व-काल जीव विदेही अवस्था को प्राप्त होता है । साधना विदेह की प्राप्ति का रत्नत्रय धर्म है, उसे ही ग्रन्थ- कर्त्ता मूल हेतु शब्द से उपदेशित कर रहे हैं। मूल हेतु तो निश्चय - व्यवहार रत्नत्रय धर्म ही है, परन्तु उस निश्चय - व्यवहार रत्नत्रय धर्म के लिए गति, स्थिति आदि भी आवश्यक हैं। बिना बहिरंग सहकारी कारण के अनन्त - शक्ति - सम्पन्न आत्मा भी अधः एवं ऊर्ध्व-गमन नहीं कर सकती, यदि सप्तम नरक में भी अधोगमन करे, तो भी बज्र - वृषभ-नाराच उत्तम संहनन चाहिए तथा ऊर्ध्व-गमन सर्वार्थसिद्धि-विमान अथवा अशरीरी सिद्ध भगवान् बनकर सिद्धालय में गमन करे, तो भी उत्तम संहनन चाहिए । उत्तम देश, उत्तम वंश, सुकुल, श्रावक - ग्रह में जन्म लिये बिना जैनेश्वरी दीक्षा नहीं होती, साथ में शुभ अंग भी होना अनिवार्य है, जिसका शरीर असाध्य रोग से ग्रसित है, साधकतम
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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