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________________ श्लो. : 15 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 1135 सकते हैं तो, मात्र स्व-श्रद्धान को समाप्त कर सकते हैं। वस्तु-व्यवस्था में व्यर्थ का शब्द-जाल, सम्प्रदायवाद, पन्थवाद, सन्तवाद कार्यकारी नहीं होता, मान्यताएँ भिन्न हो सकती हैं, परन्तु वस्तु-स्वभाव में भिन्नत्व नहीं आ सकता। देखो, ज्ञानियो! जब प्रथम तीर्थेश का काल था, तब भी जीव मुख से ही भोजन करते थे और आज भी, व्यर्थ में कोई अशुभ-भाषण करने लगे, तब भी निरोग, स्वस्थ्य मनुष्य घ्राण इन्द्रिय से भोजन नहीं करते थे, कोई भी काल रहा हो, पर गायों ने कारण-कार्य के विषय में दुग्ध सींगों से नहीं थनों से ही दिया है। आचार्य-प्रवर अमृतचन्द्र स्वामी ने बहुत ही सुन्दर कथन किया सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः। ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात्।। -पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लो. 33 भाव यह है कि जिनेन्द्र-देव सम्यग्ज्ञान को कार्य और सम्यक्त्व को कारण कहते हैं, इस कारण सम्यक्त्व के बाद ही ज्ञान की उपासना इष्ट है। कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि। दीपप्रकाशयोरिव, सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम्।। ___-पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लो. 34 निश्चय कर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों के एक-काल में उत्पन्न होने पर दीप और प्रकाश के समान कारण और कार्य की विधि भले प्रकार घटित होती है। यहाँ पर सम्यक्त्व को कारण कहा एवं ज्ञान को कार्य। सम्यक्त्व-पूर्वक ही ज्ञान सम्यक्त्व-पने को प्राप्त होता है, दोनों का समय एक होने पर भी कारण-कार्य देखा जाता है, जैसे- अन्धकार का जाना, दीपक का जलना, प्रकाश का होना, –ये तीनों कार्य युगपद् होते हैं, उनमें तो काल-भेद नहीं है, परन्तु कारण-कार्य-भेद अवश्य है। बिना कारण-कार्य-भाव सम्यक्त्व की भी सिद्धि नहीं होती, सम्यक्त्व की उत्पत्ति में अनेक कारण चाहिए पड़ते हैं, सहकारी कारणों की चर्चा अवश्य कर लें, फिर सम्यक्त्व के कारणों की बात करते हैं। कारण, हेतु, निमित्त, प्रत्यय, साधन, –ये सभी पर्यायवाची नाम हैं। भूतार्थ-नय से सर्वप्रथम यह विचार करें कि क्या सभी कार्यों के लिए सभी कारण, कारणपने अर्थात् हेतुपने को प्राप्त होंगे?... एक द्रव्य एक के लिए हेतु है, वही द्रव्य अन्य के लिए तद्कार्य के लिए अहेतु भी है; जैसे पुष्ट पुरुष के लिए घृत पोषण के लिए है और वही घृत ज्वर-पीड़ित के लिए पुष्टि में अहेतु भी है।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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