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________________ श्लो. : 12 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन तत्त्व के तल तक पहुँचना तन का कार्य नहीं है, ज्ञानी! तत्त्व के तल का स्पर्श प्रज्ञा से होता है, प्रज्ञा को तीक्ष्ण, पैनी होना अनिवार्य है। बिना प्रज्ञा की अतिशयता के तत्त्व-निर्णय नहीं हो सकता है, तत्त्व निर्णय हुए बिना सम्यक्त्व प्रकट नहीं होता, सम्यक्त्व के अभाव में सम्यग्ज्ञान नहीं होता, - ऐसा जानना चाहिए । /115 प्रमाण-सम्यग्ज्ञान, प्रमाता-आत्मा, प्रमिति जानन-क्रिया, ज्ञान का फल, अज्ञान का नाश । संज्ञा के कारण तीनों में भिन्नत्व-भाव दिख रहा है । ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान, ज्ञप्ति चारों ज्ञाता पुरुष (आत्मा), ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य पदार्थ-ज्ञान-गुण, ज्ञप्ति, जानना। अभेद-रूप से देखें, तो जो ज्ञाता है, उसी का गुण ज्ञान है, ज्ञान-गुण कार्य एवं ज्ञप्ति क्रिया है, जिसके माध्यम से अज्ञान का नाश होता है । गुण-गुणी में अभेद कारक लगाने पर एक ज्ञाता ही सम्पूर्ण गुण-मण्डित एक ध्रुव ज्ञायक - भावी है । आत्मा ने आत्मा से जाना, यह अनुपचार अभेद-वृत्ति है, जैसे- अभेद वृत्ति से तन्मय होकर चिन्मयभूत आत्मा को आत्मा जानता है, वैसे ही भेद-वृत्ति यानी भिन्नपदार्थों को आत्मा तन्मय होकर नहीं जानता । अभेद-वृत्ति प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय, प्रमिति एकीभूत हैं, अन्य नहीं, अनन्य-भूत ही हैं। जब प्रमाण निज को प्रमेय बनाता है, तब स्व- मुखी ज्ञान की वृत्ति होती है, जब प्रमाण अन्य को प्रमेय बनाता है, तब पर - मुखी ज्ञान की वृत्ति होती है । .... फिर ध्यान रखना - ज्ञान ज्ञेय रूप नहीं हो जाता, क्योंकि ज्ञेय तो जड़ भी होते हैं, जड़ प्रमेयों को जानने से प्रमाता कभी जड़ता को प्राप्त नहीं हो जाता, यदि सर्वथा प्रमाता प्रमेय हो जाए, तो संकर-दोष से दूषित होकर प्रमाता भी अचेतन हो जाएगा, कारण कि लोक में प्रमेय - चेतना चेतन रूप है। कथञ्चित् प्रमाण (ज्ञान), प्रमेय (ज्ञेय) रूप परिणत हो जाता है, जैसे- दर्पण के सामने जैसा पुरुष का चेहरा होता है, वैसा ही दर्पण में प्रतिबिम्बित होता है । यह दर्पण की विशदता का प्रतिफल है; उसीप्रकार जिसका जितना विशद ज्ञान होता है, उसके ज्ञान में उतने ही प्रमेय प्रमिति (क्रिया) को प्राप्त होते हैं, दर्पण में जो प्रतिबिम्ब झलकता है, वह पर के निमित्त से है, परंतु पर - निमित्त प्रतिबिम्ब-रूप नहीं होता, प्रतिबिम्ब तो स्व-दर्पण की ही योग्यता से स्वयं के परमाणुओं का परिणमन है, उसी प्रकार ज्ञान कभी भी पर- ज्ञेय रूप नहीं परिणमता । अपितु ज्ञान ही निज गुण से परिणमन करता है, ज्ञान की विशदता (निर्मलता) से, स्व-गुण से परिणमन करता है । ..... फिर भी ध्यान दें, बिना पर- ज्ञेय के ज्ञान पर को जानता कैसे ? ........भिन्न ज्ञेयों के निमित्त से ज्ञान-गुण तद्रूप परिणमन होता है । इस अपेक्षा से जैसा ज्ञेय होता है,
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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