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________________ 1081 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 11 जिससे कि स्वात्म-सिद्धि हो सके। जो पूर्व में सिद्ध हुए हैं, वर्तमान में विदेह क्षेत्र से जो सिद्ध हो रहे हैं, भविष्य में भरत क्षेत्र से पुनः सिद्ध होंगे। त्रैकालिक सिद्ध-दशा की प्राप्ति रत्नत्रय से ही होती है। ज्ञानियो! जब-तक बोधि की प्राप्ति नहीं होगी, तब-तक समाधि नहीं होगी, समाधि से भूतार्थ सिद्धि है, -ऐसा समझना चाहिए। तत्त्व जैसा है, वैसा ही स्वीकारना, यानी उसके प्रति वैसा श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। यहाँ तत्त्व शब्द से वस्तु-स्वभाव ग्रहण करना, वस्तु-स्वभाव ही वस्तुत्व-भाव है। द्रव्य कहते हैं, तो पर्याय भी ध्वनित होता है, फिर गुण का कथन भी पृथक् रूप से करना पड़ता है, "तत्त्व" शब्द शुद्ध-स्वभाव की ओर इंगित करता है, जैसे- पुद्गल द्रव्य की स्वभाव-दशा पुद्गल परमाणु है, जीव द्रव्य की स्वभाव-दशा शुद्ध चैतन्य-अवस्था है, जो-कि त्रैकालिक ध्रुव दशा मनुष्यादि अशुद्ध पर्याय एवं ८६ शुद्ध पर्याय -ये दोनों भी त्रैकालिक नहीं, चैतन्य-मात्र सहज स्वरूप जो है, वह त्रैकालिक है, वह कभी न उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है। द्रव्य ध्रौव्य-रूप ही है, वही तो तत्त्व है तस्य भावत्वं तत्त्वम्।। जो वस्तु का स्वभाव है, वह तत्त्व है, वह निज में ध्रुव व अपरिणामी है। यहाँ पर कोई शंका कर सकता है कि स्वभाव अपरिणामी कैसे है ? उसका समाधान समझना कि स्वभाव में भी षड्गुण हानि-वृद्धि रूप परिणमन चल रहा है। यदि उसका अभाव कर देंगे, तो द्रव्य कूटस्थ हो जाएगा, पर वह परिणमन स्वभाव-रूप में ही चल रहा है, पर-रूप नहीं चल रहा, इसलिए ध्रुव अपरिणामी है। देखो- ज्ञानी! द्रव्य किसी भी अवस्था में हो, चाहे तिर्यंच, मनुष्य, देव या नारकी की पर्याय में, परन्तु तत्त्व का परिवर्तन नहीं होता, जो जीवत्व-भाव है, वह अपरिणामी रहता है, पर्याय परिणामी है। मुमुक्षु जीव इसलिए पर्याय को तो तद्प स्वीकारता ही है, परन्तु त्रैकालिक लक्ष्य तत्त्व पर रखता है। आचार्य उमास्वामी महाराज ने भी सात तत्त्वों के श्रद्धान को ही सम्यक्त्व कहा है। इसलिए तत्त्व को गहराई से समझो। ग्रन्थकर्ता आचार्य-प्रवर यथातथ्य भूतार्थ-तत्त्व के श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कह रहे हैं। यहाँ पर कुछ विचारणीय तत्त्व पर पुनः विचार करते हैं। भगवन् अकलंक स्वामी ने तत्त्व पर श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहा है, -ऐसा ही सूत्रकर्ता ने भी कहा है, तो आत्म-तत्त्व पर श्रद्धान ही सम्यक्त्व है। ........पर ज्ञानियो! ध्यान रखो- तत्त्व-श्रद्धान से प्रयोजन मात्र आत्म-तत्त्व ही से नहीं, सातों तत्त्वों पर आस्था करना सम्यक्त्व है, आत्म-श्रद्धान एकान्त-रूपता से नहीं है। जहाँ आत्म-श्रद्धान
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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