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________________ श्लो. : 10 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 199 मिलेगी, अन्तरंग हेतु में उपादान शक्ति व निश्चय तप एवं बहिरंग हेतु में जैनेश्वरी दीक्षा व व्यवहार तप तथा निमित्त-शक्ति पिच्छी-कमण्डलु एवं जिन-दीक्षा, इसी प्रकार से आगम की व्यवस्था जानना चाहिए, अन्य किसी प्रकार के विकल्प की आवश्यकता नहीं है। उभय-निमित्त से कार्य की सिद्धि होती है, अन्य कोई मार्ग नहीं है। इसप्रकार से मैं पर का कर्त्ता हूँ, पर मेरा कर्ता है, उक्त कथन से स्व-पर के पर-निज-कर्ता-पन के अज्ञान का विनाश करने वाला यह विषय द्रव्य के शुद्ध द्रव्यत्व गुण पर दृष्टि ले जाने वाला प्रत्येक द्रव्य स्व-द्रव्य-गुण-पर्याय में निज-स्वभाव से परिणमन कर रहा है, अन्य किसी को भी पर के परिणमन में अपने परिणाम ले जाने की आवश्यकता नहीं है। द्रव्य तो जैसा है, वैसा ही रहेगा, अन्य-रूप, अन्यथा-रूप नहीं है, प्रत्येक क्षण प्रत्येक द्रव्य जैसा है, वैसा ही है, जीव व्यर्थ में क्लेश करता है। न आत्मा को पर-कर्ता स्वीकारो, न पर को आत्मा का कर्ता स्वीकारो, वस्तु की स्वतंत्रता की पहचान करो। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र ही है, ईश्वर आदि से भी परतंत्र नहीं है, शुद्ध द्रव्य-दृष्टि से आत्मा कर्मों से भी स्वतंत्र है।।१०।। *** * शान्ति विशुद्ध-वचन जोड़ने में नहीं * पुण्य कमाने के लिए छोड़ने में; किया गया दान जो जितना दान नहीं..... जोड़ता है है वह तो वह उतना व्यापार स्व से छूटता है....। पैसे के बदले गेहूँ * असाता में दान के बदले पुण्य.... भीख भी मिलती नहीं पर वांछा के बिना माँगने पर भी; दान किया नहीं पर साता में बरसते मोती पुण्य मिला नहीं....। बिन माँगे....। कि....
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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