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________________ 961 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 10 स्वभाव, काल, ग्रह, कर्म, दैव, विधाता (ब्रह्मा), पुण्य, ईश्वर, भाग्य, विधि, कृतांत, नियति, यम, –ये-सब पूर्व-जन्म-कृत कर्म के ही अपर-नाम हैं। जो अज्ञ प्राणी निज के सुख-दुःख के कारण को ईश्वर व ब्रह्मा घोषित करते हैं, वहाँ अन्य कोई ईश्वर व ब्रह्मा नहीं होता, वे सब काल्पनिक हैं, सत्यार्थ में स्व-कृत कर्म ही ईश्वर व ब्रह्मा नाम से लोक में कहा जाता है। यदि ब्रह्मा, ईश्वर हमारे सुख-दुःख के कर्ता होते, तो-फिर मेरा किया कर्म व्यर्थ हो जाएगा और मैं पराधीन हो जाऊँगा; फिर-तो जो-कुछ भी होगा, वह-सब ईश्वर के अनुसार या इच्छा से होगा। चाहे शुभ-कर्म हो, चाहे अशुभ-कर्म हो, मैं तो स्वतंत्र हो जाऊँगा, या-फिर यों कहें कि पूर्ण स्वच्छंद हो जाऊँगा। फिर स्व-माँ व भगिनी के साथ काम-क्रीड़ा-जैसी लोक-निन्द्य प्रवृत्ति भी ईश्वर-कृत हो जाएगी, उसे करने वाले का कोई दोष ही नहीं रहेगा। अरे प्रज्ञ! स्व-प्रज्ञा को विवेक-पूर्वक प्रयोग तो कर। इधर तू कहता है कि परमात्मा पूर्ण सर्वज्ञ, वीतरागी होता है, फिर तू ही तो मुझे समझा दे कि जो वीतरागी होगा, वह इतने सारे प्रपंचों में कैसे उलझ सकता है?.....दूसरी बात यह है कि ईश्वर तो भगवान् है, वह तो सबका भला करने वाला होना चाहिए, आपकी ही भाषा में कहता हूँ, जब उसके हाथ में सम्पूर्ण व्यवस्था है ही, तो-फिर इतना कठोर क्यों ?... किसी को सुखी, तो किसी को दुःखी, किसी को सज्जन तो किसी को दुर्जन क्यों बनाया, फिर उन्हीं के संहार व रक्षण के लिए पुनः अवतार लेकर संसार में जन्म लेते हैं, यह तो बच्चों-जैसी क्रीड़ा लगती है। यदि मैं ईश्वर होता, तो सभी जगत् के जीवों को सुखी ही बनाता, किसी को भी सुख से शून्य नहीं करता, यानी किसी भी जीव को दुःखी नहीं करता, फिर उनके दुःख मेंटने के लिए संसार में मुझे अवतरित नहीं होना पड़ता। ज्ञानी! यदि तू ऐसा कहे कि सुख-दुःख ईश्वर वैसा ही देता है, जैसा पुरुष का कर्म होता है, तो-फिर आपकी प्रतिज्ञा की हानि होती है एवं स्व-पक्ष ही दूषित होता है, पर-पक्ष यानी मेरा पक्ष भी भूषित होता है। आपकी प्रतिज्ञा है कि ईश्वर सुख-दुःख का कर्ता है, परन्तु यहाँ आप ही कह रहे हैं कि जीव जैसा-कर्म करता है, वैसा ही फल ईश्वर देता है, अहो! क्यों पराधीनता में स्व-वंचना कर रहे हो, जब कर्म के अनुसार ही फल प्राप्त होता है, तो व्यर्थ में ही ईश्वर को क्यों बीच में ला रहे हो? .......सीधे बोलो, स्व-कृत कर्म ही मेरे सुख-दुःख के कर्ता हैं, अन्य कोई कर्त्ता नहीं है।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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