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________________ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 9 होती है, श्रमण का मार्ग तो षड्काय की हिंसा से परे है। एक क्षण अहो योगियो ! चिन्तन करें कि अपना मार्ग कितना श्रेष्ठ है, जहाँ परिपूर्ण रूप से स्वाधीनता है, न भोजन का विकल्प, न भवन का, सर्पवत् मिलता है, फिर हम क्यों दीमक बनें, जो कि स्वयं बना-बनाकर वामी को तैयार करती है, पर रहते उन वामियों में सर्प हैं । उसीप्रकार श्रमणो! आप उपदेश- आदेश करके बनवा जाओगे, पर उन धर्मशालाओं में रागी - भोगी जीव ही तो निवास करेंगे। तनिक से नाम के राग के वश होकर त्रिलोक्य- पूज्य जिन - मुद्रा को क्यों टुकड़ों में नष्ट कर रहे हो। परम योगी का ज्ञानानन्द व परमानन्द - रस-पान का मार्ग है, अन्य सभी आनन्द अनेक पर्यायों में प्राप्त किये हैं, पर वीतरागता का एवं निस्पृहता का आनन्द तो मात्र एक दिगम्बर तपोधन की भूमिका में ही प्राप्त होता है । धन्य हैं वे धरती के देवता, जो युवा अवस्था में भोगों की तपन से स्वात्मा की रक्षा करके परम ब्रह्म-धर्म की साधना में लीन हो गए हैं, उनसे ही श्रमण-संस्कृति शोभायमान है, ब्रह्म - लीन योगी-जनों के चरणों की बलिहारी है, जिन्होंने शील के हार को धारण किया है, कुशील के भार को उतार दिया है, वे साधु जयवन्त हों, यह धरा-धाम इन श्रमणों से हर्षित होता है। मनीषियो! यह तो व्यावहारिक चर्चा है, पुनः भूतार्थ-दृष्टि पर दृष्टि डालें, वही आत्म- हित में सहकारी है, अन्य नहीं, अन्यथा नहीं । आत्मा ही ज्ञान व अज्ञान - भाव को प्राप्त होता है, अन्य जो भी आयतन हैं, वे सब अपने-आप में स्वतंत्र हैं । छः ही द्रव्य एकत्व-विभक्त्व रूप हैं, एक भी द्रव्य पर-भाव-रूप नहीं है, प्रत्येक द्रव्य निज-स्वभाव में द्रवण-शील है, परस्पर एक-दूसरे के साथ एक ही आकाश में स्थित होने पर भी वे अपने स्वाधीन धर्म का कभी परित्याग नहीं करते; पर अनादि - अविद्या-वश मोह-पिशाच के द्वारा बैल की भाँति पंच - परावर्तन - संसार में अनवरत भ्रमित कराया गया। जिस भ्रमण में कर्म चक्र का प्रबल हाथ है, जो कि जीव के निज भवों, भावों व कर्मों द्वारा ही सम्पादित होते हैं, अन्य किसी के द्वारा उन्हें निमंत्रण नहीं दिया जाता, आत्मा जैसा-भाव करता है, वैसा ही होता है। जब ज्ञान मय भाव करता है, तब जीव ज्ञान - मय होता है, और जब अज्ञान - मय-भाव करता है, तब अज्ञान मय होता है, इन भावों का कर्त्ता स्वयं ही होता है, अन्य नहीं । स्वर्ण धातु से स्वर्ण-मय आभूषण ही निर्मित होते हैं, लोहा-धातु से निर्मित आभूषण लौह - मय ही होगा, स्वर्ण-मय कैसे ? . I 90 /
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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