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________________ 76/ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो . : 6 कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत। विद्याऽविद्या-द्वयं न स्यात् बन्ध-मोक्ष-द्वयं तथा।। -आप्तमीमांसा, श्लो. 25 अर्थात् अद्वैत मानने पर शुभ कर्म और अशुभ कर्म, दो कर्म नहीं होते। यह पुण्य, यह पाप है; इह-लोक, पर-लोक, ज्ञान, अज्ञान, बन्ध-मोक्ष, जीव-प्रदेश और कर्म-प्रदेशों का परस्पर मिलना बन्ध तथा मोक्ष (आठ प्रकार के कर्मों का छूटना) यह-सब कुछ भी नहीं होगा। - यदि पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष को अद्वैतवादी स्वीकारते हैं, तो ध्यान रखो- द्वैत की ही सिद्धि होती है, अतः स्याद्वाद् नय का आलम्बन लेकर ही कथन करना चाहिए, वस्तु स्वभाव की एकता-अखण्डता की अपेक्षा द्रव्य एक है, नाना धर्मों की अपेक्षा अनेक है। अतः ज्ञानियो! वह आत्मा एक-रूप ही नहीं है, किस कारण से? ....घट-पट आदि विषयों को जानने वाले अनेक ज्ञान-स्वभावी होने के कारण से, तो क्या वह अनेक-रूप है?..वह अनेक भी नहीं है, किस कारण से? ....चैतन्य ही उसका एकमात्र स्वरूप होने के कारण; तो आत्मा कैसी होगी? वह एकानेक स्वभाव वाली होती है, इसप्रकार आत्मा के सत्यार्थ-स्वरूप का बोधकर निश्चयीभूत ध्रुव, टंकोत्कीर्ण, ज्ञायक-स्वभावी परम पारिणामिक स्यन्दीभूत-दशा की प्राप्ति का पुरुषार्थ करना प्रत्येक मुमुक्षु का कर्तव्य है।।६।। *** * पड़ जाते सत्य के संस्कार जिसके जीवन में.... नहीं हिला पाती असत्य की आँधी विशुद्ध-वचन * नहीं जानता जो शिव को, रोता वही शव के लिए सब के लिए, जो जानता शिव को करता संस्कार वह शव के........। उसे फिर....।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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