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________________ श्लो. : 5 स्वरूप-संबोधन- परिशीलन कि वि भंणेति जिउ सव्व गउ जिउ जड्ड के विभांति । कि वि भणति जिउ देह समु सुण्णुविकेवि भणति ।। / 63 - परमात्मप्रकाश, 50 / 59 कोई नैयायिक, वेदान्ती और मीमांसक दर्शन वाले जीव को सर्व-गत कहते हैं । कोई सांख्य दर्शन वाले जीव को निष्क्रिय कहते हैं । कोई बौद्ध दर्शन वाले जीव को शून्य भी कहते हैं, किंतु जिन-धर्मी जीव को व्यवहार- नय से देह - प्रमाण कहते हैं और निश्चय - नय से लोक - प्रमाण मानते हैं । यह आत्मा व्यवहार - नय से केवलज्ञान की अपेक्षा लोक- अलोक को जानता है और शरीर में रहने पर भी निश्चय - नय से अपने स्वरूप को जानता है, इस कारण ज्ञान की अपेक्षा तो व्यवहार नय से सर्व-गत है, प्रदेशों की अपेक्षा सर्व-गत नहीं है, पर जैसे मीमांसक तथा वेदांती आत्मा को प्रदेशों की अपेक्षा से व्यापक मानते हैं, वैसा नहीं है। ज्ञानात्मक दृष्टि से आत्मा सर्व-गत है, इस विषय में भगवन् कुन्दकुन्द देव ने प्रवचनसार में कहा है आदा णाण-पमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिद्वं । यं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं । । - ज्ञानतत्त्व अधिकार, 24 I आत्मा ज्ञान- प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय-प्रमाण कहा गया है । ज्ञेय लोकालोक है, इसलिए ज्ञान सर्व-गत व सर्व व्यापक है । जैसे- दर्पण में दीर्घ वस्तु भी प्रतिबिम्बित होती है, उसीप्रकार ज्ञान में लोकालोक प्रमाण- प्रमेय झलकते हैं । ज्ञान के बाहर कोई भी प्रमेय नहीं है; यों कहें कि प्रमाण से पृथक् कोई प्रमेय नहीं जाते, भिन्न होने पर भी अभिन्न होते हैं। प्रमाता प्रमाण से प्रमेय को जानता है, अतः जितने ज्ञेय हैं, उतना ही ज्ञान का विषय है, यदि ज्ञेय लोकालोक है, तो ज्ञान का विषय भी लोकालोक है। ज्ञान सम्पूर्ण द्रव्यों के विषय जानता है, इसलिए सर्व-गत है और वह ज्ञान आत्मा का गुण है। गुण-गुणी में अभेद है, इस दृष्टि से आत्मा ही ज्ञान है, ज्ञान ही आत्मा है। इस अपेक्षा से आत्मा सर्व- जीव-गत है । विश्व व्यापी है आत्मा, परन्तु सर्वथा नहीं; जैसे कि ब्रह्माद्वैतवादी आत्मा या ब्रह्म को सर्व व्यापी मानते हैं । जैन दर्शन आत्मा को सर्व-व्यापी ज्ञानात्मा ही मानता है, देशात्मक तो मात्र समुद्घात की अवस्था में ही बनता है। आत्मा में संकोच - विस्तार नाम की शक्ति है, जिसके माध्यम से छोटा-बड़ा होता रहता है, नाम कर्म की प्रकृति से आत्मा नाना आकारों को प्राप्त होता है, फिर
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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