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________________ 60/ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लोक 1-5 उत्थानिका - शिष्य जिज्ञासा प्रकट करता है - भगवन्! आत्मा द्रव्य की अपेक्षा से तथा ज्ञान की अपेक्षा से कैसी है ?.. समाधान- आचार्य देव कहते हैं स्वदेहप्रमितश्चायं ज्ञानमात्रोऽपि नैव सः । ततः सर्वगतश्चायं, विश्वव्यापी न सर्वथा । । श्लो. : 5 अन्वयार्थ - (अयं) यह आत्मा, (स्वदेहप्रमितः) अपने शरीर के बराबर है, (च) और, (सः) वह आत्मा, (ज्ञानमात्रः अपि) ज्ञान गुणमात्र भी, (नैव) नहीं है, (ततः) इस कारण, (अयं) यह आत्मा, (सर्वथा) सब तरह, (सर्वगतः) समस्त पदार्थों को स्पर्श करने वाला, (न) नहीं है, (विश्वव्यापी) समस्त जगत् में व्यापने वाला भी सर्वथा, (न) नहीं है | 15 || परिशीलन - आचार्य भगवन्त इस कारिका में जीव द्रव्य के प्रति विभिन्न दार्शनिकों द्वारा स्थापित नाना प्रकार के भ्रमों का निरसन कर रहे हैं, लोक में नाना जीव हैं, नाना कर्म हैं, सभी अपने-अपने क्षयोपशम से युक्त हैं । अहो ज्ञानियो! जगत् के जीव सभी भगवत् - शक्ति सम्पन्न हैं, उनके प्रति द्वेष-भाव नहीं करना, कारण कि द्रव्य-दृष्टि से देखो! जो मिथ्या धारणा में जी रहा है, वही परम सम्यक्त्व दशा को भी प्राप्त कर लेता है और स्वयं का कल्याण कर शिवत्व को प्राप्त होता है, मिथ्या - मत का निषेध करना अनिवार्य है । जितनी अनिवार्यता सम्यक्-मार्ग की स्थापना की है, उतनी ही अनिवार्यता मिथ्या मत के निरसन की होनी चाहिए। कारण समझना ....लोक में ऐसे भी जीव हैं, जो विधि को स्वीकार करने के बाद निषेध पर भी दृष्टि रखते हैं, कहते हैं, कि अमुक वस्तु उपादेय है, यह तो ठीक है, पर अमुक वस्तु हेय है, यह तो कहा ही नहीं है । विधि का कथन करने के साथ निषेध का कथन करना अति अनिवार्य है, जैसे- किसी से कहा कि अरहन्त देव की आराधना करना चाहिए, वह कहता है- ठीक है, अरहन्त की आराधना करना 1. इस श्लोक का निम्न पाठ और मिलता है तथा निम्न पाठ ही ग्राह्य क्यों हो?... इसके आधार वहाँ उल्लिखित नहीं हैं, अतः हम उक्त पाठ ही स्वीकारते हैं स्वदेहप्रमितश्चायं ज्ञानमात्रोऽपि नैव सः । तत्सर्वगततः सोऽपि, विश्वव्यापी न सर्वथा ।।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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