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________________ श्लो. : 3 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 149 भी संभव नहीं है। एकान्त-कथन में दोष ही दोष है, अनेकान्तवाद ही निर्दोष-तत्त्व-प्ररूपक है, -ऐसा समझना चाहिए। अनेकान्तवाद ही सम्यग्वाद है। यह छल व संशय-रूप नहीं है, यही सत्यार्थ-वाद है, जो अनेकान्तवाद को संशय-रूप से समझते हैं, वे अल्पधी स्व-प्रज्ञा की वृद्धि करके हठ-धर्मिता का विसर्जन करके विचार करें, तो उन्हें ज्ञात हो जाएगा कि स्याद्वाद् संशयवाद नहीं है, अपितु स्याद्वाद् ही सम्यग्वाद है। बिना स्याद्वाद् के गृह-व्यापार तक भी नहीं चलता, फिर परमार्थ कैसे चल सकता है?... किसी भी विषय पर टिप्पणी करने के पूर्व तद्विषय का गंभीर अध्ययन करना अनिवार्य है, अन्यथा प्रशंसा-पात्र होने के स्थान पर हास्य के पात्र ही बन जाएंगे। अतः स्याद्वाद-सिद्धान्त का अध्ययन निर्मल भाव से करो। जिससे स्याद्वाद् में सम्यग्वाद समझ में आने लगे, फिर नहीं कह पाओगे कि स्याद्वाद् छल-वाद व संशय-वाद है। जिस व्यक्ति ने स्याद्वाद् व अनेकान्त-सिद्धान्त को संशय-वाद कहा है, वह स्वयं में संशय-वादी था, उसे किञ्चित् भी जिज्ञासा-भाव तत्त्व-निर्णय का होता, तो अवश्य ही वह भी स्याद्वाद् का ही घोष करता, परन्तु क्या करें?.... अनादि की अविद्या के वश जीव ईर्ष्या-भाव को प्राप्त होता है, जिसके निमित्त सत्यार्थ को भी कहने में संकोच करता है, पर ध्यान रखना- ईर्ष्या के वश सत्य कोई न कहे, तो क्या सत्य असत्य हो जाएगा?... नहीं, सत्य तो सत्य ही रहेगा, अन्य की ईर्ष्या से क्या आप सत्यार्थ-शासन का त्याग कर देंगे?... -ऐसा कभी नहीं करना; कहा भी है ईसाभावेण पुणो केई णिदंति सुन्दरं मग्गं। तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे।। -नियमसार, गा. 186 परन्तु ईर्ष्या-भाव से कई लोग सुन्दर मार्ग को निन्दते हैं, उनके वचन सुनकर जिन-मार्ग के प्रति अभक्ति नहीं करना, अपितु निःश्रेयस्-सुख के लिए भक्ति करना। अज्ञ बहिरात्मा मिथ्या-मार्ग को मिथ्या-मार्ग जानते हुए भी उसे नहीं छोडते, -ऐसा तीव्र मिथ्या-राग होता है कि प्राणों का परित्याग करने को भी तैयार रहते हैं, लेकिन मिथ्या धारणा को नहीं बदलते। अहो! क्या आश्चर्य है, मिथ्या अज्ञान का कि जीव भव-भ्रमण से किंचित् भी भयभीत नहीं होता, उसी में लीन रहता है, और उसकी पुष्टि में अपने परिणामों को लगाता है, एक क्षण भी सम्यक्त्व में शान्ति की श्वास नहीं लेता।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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