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________________ लोक भावना ३. 'लोकेऽथोर्खे ब्रह्मलोके धुलोके, यस्य व्याप्तौ कूर्परौ पञ्चरज्जूः। लोकस्यान्तो विस्तृतो रज्जुमेकां, सिद्धज्योतिश्चित्रको यस्य मौलिः॥ लोकपुरुष के ऊर्श्वभाग में ब्रह्मलोक नाम का पांचवां स्वर्गलोक है। वह लोकपुरुष का कोहनी-स्थानीय है और पांच रज्जु प्रमाण फैला हुआ है। लोकपुरुष का अन्तभाग एक रज्जु प्रमाण विस्तार वाला है। उसके मस्तक का तिलक है सिद्धज्योति-सिद्धशिला। ४. यो वैशाखस्थानक स्थायिपादः, श्रोणीदेशे न्यस्तहस्तद्वयश्च। कालेऽनादौ शश्वदृक्दमत्वाद्, बिभ्राणोऽपि श्रान्तमुद्रा मखिन्नः। खड़े-खड़े मन्थन करते हुए मनुष्य के फैले हुए पैरों की भांति उस लोकपुरुष के पैर टिके हुए हैं। उसके कटिभाग पर कोहनी से मुड़े हुए दोनों हाथ रखे हुए हैं। अनादिकाल से वह शाश्वतरूप में खड़ा हुआ है। थके हुए पुरुष की मुद्रा को धारण करता हुआ भी वह खिन्न नहीं है। ५. सोऽयं ज्ञेयः पूरुषो लोकनामा, षड्द्रव्यात्माऽकृत्रिमोऽनाद्यनन्तः। धर्माऽधर्माकाशकालात्मसंज्ञै र्द्रव्यैः पूर्णः सर्वतः पुद्गलैश्च॥ जिसका पूर्ववर्ती श्लोकों में वर्णन किया है वह लोक नाम का पुरुष है। १. शालिनी। २. 'तिलके तमालपत्रचित्रपुण्ड्रविशेषकाः' (अभि. ३/३१७)। ३. शालिनी। ४. वैशाखस्थानक-युद्ध में कूटलक्ष्य को बाण से बींधने के लिए दोनों पैरों को हाथभर विस्तृत कर खड़े रहने की मुद्रा (अभि. ३/४४१)। वैशाख का एक अर्थ मन्थान भी है-'वैशाखः खजको मन्थाः' (अभि. ४/८९)। हमने यहां 'मंथान' परक अर्थ किया है। ५. लोकपुरुष के हाथ कटिभाग पर टिके हुए हैं। थका हुआ व्यक्ति इस प्रकार की मुद्रा को धारण करता है, इसलिए इसे श्रान्तमुद्रा कहा गया है। ६.शालिनी।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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