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________________ ५५ धर्म भावना भयंकर बनी हुई भूमि को समय पर (वर्षाकाल में) आश्वस्त करता है-शांत करता है। ४. 'उल्लोलकल्लोलकलाविलासै प्लावयत्यम्बुनिधिः क्षितिं यत्। न घ्नन्ति यद् व्याघ्रमरुद्दवाद्याः, धर्मस्य सर्वोऽप्यनुभाव एषः॥ उच्छलती हई विशाल ऊर्मियों के कलाविलास से जो समुद्र पृथ्वी को आप्लावित नहीं करता, बाघ नहीं मारता, बवंडर हानि नहीं पहुंचाता और दावानल आदि नहीं जलाता। यह सब धर्म का ही सामर्थ्य है। ५. यस्मिन्नेव पिताऽहिताय यतते भ्राता च माता सुतः, सैन्यं दैन्यमुपैति चापचपलं यत्राऽफलं दोर्बलम्। तस्मिन् कष्टदशाविपाकसमये धर्मस्तु संवर्मितः, सज्जः सज्जन एष सर्वजगतस्त्राणाय बद्धोद्यमः।। जिस समय पिता, भाई, माता और पुत्र अहित करने का प्रयत्न करते हैं, सेना दीन बन जाती है और धनुष से चपल बना हुआ भुजबल निष्फल हो जाता है, उस कष्ट-अवस्था के विपाककाल में यह धर्मरूपी सज्जन संपूर्ण जगत् के त्राण के लिए कवचित होकर सन्नद्ध और उद्यमशील रहता है। ६. त्रैलोक्यं सचराचरं विजयते यस्य प्रसादादिदं, योऽत्राऽमुत्र हितावहस्तनुभृतां सर्वार्थसिद्धिप्रदः। येनाऽनर्थकदर्थना निजमहःसामर्थ्यतो व्यर्थिता, तस्मै कारुणिकाय धर्मविभवे भक्तिप्रणामोऽस्तु मे।। जिसके प्रसाद से यह जंगमस्थावर तीनों लोक विजयी बनते हैं, जो इहलोक-परलोक में मनुष्यों के लिए हितकर और सब मनोरथों को सिद्ध करने वाला है, जिसने अपने तेज के सामर्थ्य से अनर्थ की दुश्चेष्टा को व्यर्थ बना दिया है उस कारुणिक धर्मप्रभु को मेरा भक्तिभरा प्रणाम हो। ७. "प्राज्यं राज्यं सुभगदयिता नन्दना नन्दनानां, रम्यं रूपं सरसकविताचातुरी सुस्वरत्वम्। नीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धिः, किन्नु ब्रूमः फलपरिणतिं धर्मकल्पद्रुमस्य? १. इन्द्रवज्रा। २-३. शार्दूलविक्रीडित। ४. मन्दाक्रान्ता।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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