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________________ छठा प्रकाश अशौच भावना १. 'सच्छिद्रो मदिराघटः परिगलत्तल्लेशसङ्गाऽशुचिः, शुच्याऽऽमृद्य मृदा बहिः स बहुशो धौतोऽपि गङ्गोदकैः। नाधत्ते शुचितां यथा तनुभृतां कायो निकायो महान, बीभत्साऽस्थिपुरीषमूत्ररजसां नाऽयं तथा शुद्ध्यति॥ जिस प्रकार छिद्रयुक्त मदिरा का घड़ा रिसती हुई मदिरा की बूंदों के संसर्ग से अपवित्र हो जाता है, बाहर से शुद्ध मिट्टी द्वारा उसे मलकर बार-बार गंगाजल से धोने पर भी वह पवित्र नहीं बन पाता, उसी प्रकार मनुष्यों का यह शरीर, जो बीभत्स अस्थि, मलमूत्र और रज का बड़ा ढेर है, बाह्य साधनों से शुद्ध नहीं हो पाता। २. स्नायं स्नायं पुनरपि पुनः स्नान्ति शुद्धाभिरद्धि वरिं वारं बत! मलतनुं चन्दनैरर्चयन्ते। मूढात्मानो वयमपमलाः प्रीतिमित्याश्रयन्ते, नो शुद्ध्यन्ते कथमवकरः शक्यते शोधुमेवम्? आश्चर्य है कि जो लोग शुद्धजल से शरीर को मलमलकर बार-बार नहाते हैं, मलिन शरीर को बार-बार चन्दन से अर्चित करते हैं, वे मूढ आत्मा वाले लोग मन में खुश हो जाते हैं कि हम मैलविहीन बन गए। वस्तुतः वे शुद्ध नहीं होते। क्या उकरड़े को इस प्रकार शुद्ध किया जा सकता है? ३. 'कर्पूरादिभिरर्चितोऽपि लशुनो नो गाहते सौरभं, नाजन्मोपकृतोऽपि हन्त! पिशुनः सौजन्यमालम्बते। देहोप्येष तथा जहाति न नृणां स्वाभाविकी विस्रतां, ___ नाभ्यक्तोऽपि विभूषितोऽपि बहुधा पुष्टोऽपि विश्वस्यते।। १. शार्दूलविक्रीडित। २. मन्दाक्रान्ता। ३. शार्दूलविक्रीडित।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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