SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ शान्तसुधारस जब यमराज मनुष्य को बलपूर्व अपने अधीन करता है तब उसका प्रताप विनष्ट हो जाता है, उदित तेज अस्त हो जाता है, धैर्य और उद्योग समाप्त हो जाते हैं, पुष्ट शरीर भी शिथिल पड़ जाता है और पारिवारिक जन उसका धन बटोरने में लग जाते हैं। गीतिका २ : मारुणीरागेण गीयतेस्वजनजनो बहुधा हितकामं प्रीतिरसैरभिरामं, __ मरणदशावशमुपगतवन्तं रक्षति कोऽपि न सन्तम्। विनय! विधीयतां रे! श्रीजिनधर्मः शरणं, __ अनुसंधीयतां रे! शुचितरचरणस्मरणम्॥१॥ अनेक प्रकार से हित चाहने वाला प्रेमरस से रमणीय व्यक्ति भी जब मृत्यु-अवस्था के अधीन होता है तब कोई भी पारिवारिक जन उसकी रक्षा नहीं करता। अतः हे विनय! तू जिन-धर्म को शरण बना और पावन चरणों (पावन आचरण) वाले पुरुषों की स्मृति में मन का नियोजन कर। तुरगरथेभनराऽऽवृतिकलितं, दधतं बलमस्खलितम। हरति यमो नरपतिमपि दीनं, मैनिक इव लघु मीनम्॥२॥ रंक की बात ही क्या, किन्तु जो राजा अश्वसेना, रथसेना, हस्तिसेना और पैदल सेना इस चतुरंगिणी सेना से सुसज्जित है, जो निर्बाध पराक्रम को धारण किए हुए है, उस राजा को भी यह यमराज उसी प्रकार पकड़ लेता है जिस प्रकार मच्छीमार मच्छली को शीघ्रता से पकड़ता है। प्रविशति वज्रमये यदि सदने, तृणमथ घटयति वदने। तदपि न मुञ्चति हतसमवर्ती, निर्दयपौरुषनर्ती॥३॥ यदि कोई मनुष्य मौत के भय से वज्रमय घर में घुस जाता है, अपने मुख में तिनका ले लेता है, फिर भी क्रूर पौरुष से नाचने वाला यह अधम यमराज उसे नहीं छोड़ता। १. विधीयतां....श्रीजिनधर्मः शरणं-यहां धर्म और शरण दोनों विशेष्य-विशेषण रूप में कर्म हैं। 'विधीयतां' कर्मवाच्य की क्रिया होने से 'धर्म' पद में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग हुआ है।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy