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________________ जमालि १६९ बिछौना बिछा दिया है?' श्रमणों ने कहा-'भन्ते! बिछाया नहीं, बिछा रहे हैं।' इस प्रत्युत्तर से जमालि को सहसा एक आघात लगा। अन्तःकरण विचार-तरंगों से आन्दोलित हो उठा। विचारों में आकस्मिक एक तेज तूफान आया और प्राचीन विचारों को एक नया मोड़ दे गया। प्राचीन अर्वाचीन बन गया। उसने सोचा-अरे! भगवान् महावीर क्रियमाण को कृत कहते हैं। जो किया जा रहा है, उसे किया हुआ कहते हैं। क्या यह सर्वथा निर्मूल और मिथ्या नहीं है? यह सिद्धान्त परीक्षण की कसौटी पर सही कहां उतर रहा है? मैं प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा हूं कि जो बिछौना बिछाया जा रहा है, वह बिछा ही कहां है। यदि बिछा हुआ होता तो मैं उस पर सो जाता। फिर मैं कैसे मानूं कि महावीर का यह सिद्धान्त सत्य और समीचीन है? इस विचार-क्रांति ने जमालि के अन्तःकरण को सर्वथा मोड़ दे दिया। उसने अपनी नवीन विचारधारा को श्रमणों के सम्मुख रखा। उसके नये विचार कुछेक शिष्यों को रुचिकर लगे और वे नवीनता के प्रवाह में बह गए। वे जमालि के साथ रहते हुए अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करने लगे। जिनको जमालि द्वारा प्रतिपादित विचार मान्य नहीं हुए वे पुनः भगवान् महावीर की अनुशासना में आ गये। जमालि स्वस्थ हो गया। वह श्रावस्ती से प्रस्थान कर चम्पा में आया। भगवान् महावीर उसी नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में विहार कर रहे थे। जमालि भगवान् के पास आया और बोला-'आपके अनेक शिष्य असर्वज्ञ रहकर अकेवली विहार कर रहे हैं, किन्तु मैं अ-केवली विहार नहीं कर रहा हूं, सर्वज्ञ होकर केवली विहार कर रहा हूं।' उसकी गर्वोक्ति सुनकर भगवान् के अन्तेवासी गौतम ने कहा-जमालि! केवली का ज्ञान अव्याबाधित होता है। वह किसी से आवृत नहीं होता। यदि तुम्हारा ज्ञान अनावृत है तो मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दो लोक शाश्वत है या अशाश्वत? जीव शाश्वत है या अशाश्वत? गौतम के प्रश्न सुनकर जमालि सशंकित हो गया। वह कुछ भी उत्तर नहीं दे सका। भगवान् ने उसे मौन देखकर कहा-क्यों जमालि! क्या अपने आपको जिन या केवली कहने वाला इस प्रकार निरुत्तर होता है? इसका उत्तर तो मेरे कई छद्मस्थ साधु भी दे सकते हैं। महावीर ने उसे समझाने के लिए जीव और लोक की विशद व्याख्या की और नय के सिद्धान्त को समझाते हुए कहा-जमालि!
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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