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________________ चक्रवर्ती का भोजन १६७ उनका रोम-रोम करुणा से आप्लावित हो गया। उन्होंने प्रसन्न होते हुए ब्राह्मण से कहा- तू जो चाहे वरदान मांग ले। उसने मन ही मन सोचा कि क्या मांगूं? बहुत सोचने पर भी वह किसी निर्णय तक नहीं पहुंच सका। अन्त में उसने पत्नी से परामर्श लेना उचित समझा। राजा से कुछ समय मांगकर वह घर लौटा, पत्नी से विचार-विमर्श किया। पत्नी का अभिमत रहा कि स्वल्प धनराशि से जीवन का निर्वाह नहीं हो सकता और बड़ी राशि मांगने में अन्यान्य जोखिम बहुत हैं । वरदान हो तो ऐसा हो कि जिससे हमें भी कोई संक्लेश न हो और प्रतिदिन के झंझटों से भी मुक्ति मिल जाए। इसलिए अच्छा यही है कि प्रतिदिन प्रत्येक घर में खीर - खाण्ड का भोजन और दक्षिणा में एक-एक स्वर्ण मुद्रा मांग ली जाए। पत्नी का यह सुझाव ब्राह्मण को मान्य हो गया। दूसरे दिन प्रातः ब्राह्मण सम्राट् के चरणों में उपस्थित हुआ और कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उसने पत्नी द्वारा अनुमोदित प्रतिवेदन कह सुनाया। चक्रवर्ती मन ही मन उसकी इस तुच्छ अभ्यर्थना व मंदभाग्यता पर हंसे। सम्राट् बहुत कुछ दे सकते थे, पर उस मंदभाग्य से कुछ मांगा ही नहीं गया। सम्राट् ने ब्राह्मण की प्रार्थना स्वीकार कर ली और सारे नगर में उद्घोषणा करवा दी। आज ब्राह्मण का प्रथम दिन का भोजन सम्राट् चक्रवर्ती के यहां था। बड़े आतिथ्य सत्कार के साथ उन्हें भोजन परोसा गया। भोजन सुस्वादिष्ट तथा सुसंस्कारित था। खीर खाण्ड का भोजन कर ब्राह्मण-दम्पती अपने आपको तृप्त मान रहे थे। जीवन में प्रथम बार ही उन्होंने ऐसा भोजन चखा था, इसलिए भूख से कुछ अधिक ही भोजन किया। भोजन के अन्त में आचमन कर और दक्षिणा में एक-एक स्वर्ण मुद्रा ले वे अपने घर लौट आए। अब वे प्रतिदिन नगर के एक-एक घर में अतिथि बनकर भोजन ग्रहण करने लगे। यह क्रम चलता रहा। कहां तो चक्रवर्ती के भोजन की सरसता, सुस्वादिष्टता तथा मधुरता और कहां अन्यान्य घरों की ! चक्रवर्ती के भोजन के सामने दूसरे घरों का भोजन सर्वथा नगण्य था। अब वे सोच रहे थे - काश! चक्रवर्ती का भोजन ही मांग लिया जाता तो कितना अच्छा होता। प्रतिदिन वह खीर - खाण्ड का भोजन मिलता। किन्तु पश्चात्ताप के सिवाय अब बचा ही क्या था । बाण हाथ से छूट चुका था। अब वे प्रतीक्षारत थे कि कब हमें पुनः चक्रवती के घर का भोजन मिले। सम्राट् चक्रवर्ती के अधीन न जाने कितने ग्राम और नगर थे और उनमें हजारों-हजारों घर थे। कई जन्म भी पूरे हो जाएं तो भी चक्रवर्ती के घर का क्रम आना बहुत दुर्लभ था।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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