SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट - २ १. सम्राट् भरत महानगरी विनीता की चहल-पहल बढ़ती जा रही थी। लोगों का प्रफुल्ल-मानस अपने प्रभु को पाकर आनन्दोत्सव मना रहा था। ब्रह्ममुहूर्त्त से ही सभी नागरिक अहंपूर्विकया उत्तर दिशा की ओर चले जा रहे थे। निर्जन रहने वाला नगर का बाह्य उद्यान जनाकीर्ण होता जा रहा था । उनका अन्तःकरण प्राकृतिक-सम्पदा से कहीं अधिक हरा-भरा और पेड़-पौधों में प्रस्फुटित नई कोंपलों की भांति नव-नवोन्मेष ले रहा था । उन सभी के चेहरे हर्ष की रेखाओं से देदीप्यमान, अनिमेष लोचनयुगल किसी संभाव्य प्रियदर्शनों के लिए लालायित, कर्णयुगल मधुरवचनश्रवण के लिए उत्कर्ण तथा रसना सुस्वादिष्ट रसास्वादन के लिए चपल थी। आज महानगरी को वन्दनवारों से सजाया गया था। कहीं सुगन्धित द्रव्य छिड़के जा रहे थे तो कहीं अक्षत-कुंकुम आदि मांगलिक द्रव्यों से स्वस्तिक बनाए जा रहे थे। कहीं मुख्यमार्गों में वाद्ययन्त्रों की मंगलध्वनि गूंज रही थी तो कहीं सम्राट् को देखने के लिए लोगों की भीड़ लगी हुई थी । विनीताधिपति सम्राट् भरत आज अपनी चतुरंगिणी सेना से सुसज्जित होकर भगवान् ऋषभ के दर्शनों के लिए जा रहे थे। एक ओर उनका आध्यात्मिक सम्बन्ध था तो दूसरी ओर पारिवारिक सम्बन्ध । आदिनाथ तीर्थंकर सम्राट् भरत के संसारपक्षीय पिता थे, किन्तु वीतराग होने के कारण अध्यात्मपथ के प्रणेता भी थे। भगवान् ने प्रव्रज्या लेते समय अपना उत्तराधिकार भरत को ही सौंपा था। भगवान् ऋषभ के सौ पुत्र थे। उनमें भरत ज्येष्ठ और अनुभवी थे। उन्होंने अपने शासन - विस्तार और चक्रवर्ती बनने के लिए बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ीं। अनेक राजाओं को अपने पराक्रम से विजित किया, फिर भी उनकी विजययात्रा अभी तक अपूर्ण थी। जब तक वे षड्खंड के सभी राजाओं को नहीं जीत लेते तब तक उनका चक्रवर्ती बनने का स्वप्न साकार नहीं हो सकता था। अतः उन्होंने अपने सभी भाइयों को स्व- अनुशासन में लेना चाहा । अट्ठानवें भाई भरत के अनुशासन को चुनौती देकर
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy