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________________ कूरगडूक का ऊर्ध्वारोहण १५३ गया कि एक दिन भी बिना खाए नहीं निकाल सकता। आधा दिन तो बीत ही गया। अब आधे दिन की बात और है। कूरगडूक ने बद्धांजलि होकर कहा-'गुरुदेव! आप मेरे हितैषी हैं। मुझे कल्याणमार्ग की ओर प्रेरित करने वाले हैं। करूं क्या? पेट भूखा है, मानता ही नहीं। आप ठीक कहते हैं गुरुदेव! आपकी सभी बातें शिरोधार्य हैं, किन्तु उपवास करना मेरे लिए असाध्य और दुर्गम है।' आचार्य ने उन्हें पुनः पुनः उपवास करने की प्रेरणा दी, परन्तु शिष्य ने हर बार अपनी असमर्थता ही प्रकट की। अन्त में आचार्य ने भी अन्यमनस्कता दिखाते हुए किंचिद् रूखे स्वर में कहा—'जा, जा, जैसी तेरी इच्छा।' । मध्याह्न की तपती दुपहरी। ऊपर सूर्य अपने आतप से सिर को तपा रहा था तो नीचे धरती अंगारों की भांति पैर जला रही थी। कूरगडूक मुनि भिक्षा के लिए घर-घर घूम रहे थे। कहीं घर के द्वार बन्द थे तो कहीं घर के सभी सदस्य उपवास किए हुए थे। कहीं किसी के रसोई बनने में देरी थी तो कहीं किसी के प्रासुक और कल्पनीय भोजन की प्राप्ति ही नहीं थी। फिर भी मुनि प्रसन्नता से एक घर से दूसरे घर में जाते हुए भिक्षा की गवेषणा कर रहे थे। बहुत प्रयत्न के पश्चात् उनको किसी के घर बची-खुची तथा बासी खिचड़ी ही भिक्षा में उपलब्ध हुई। जो कुछ मिला उसी में मुनि कूरगडूक ने आत्मतोष किया और बिना किसी उद्विग्नता के अपने स्थान पर लौट आए। अपने द्वारा लाई हुई भिक्षा को गुरु को दिखाया। आचार्य विमलद्युति कुछ तो पहले से ही रुष्ट थे और फिर भिक्षा देखकर और अधिक उत्तेजित हो गए। उन्होंने तत्काल बिना कुछ विचारे पात्री में थूकते हुए कहा-देखता हूं तू कैसे भोजन करता है? मुनि कूरगडूक शान्तभाव से उपाश्रय के भीतर गए और आचार्य द्वारा किए गए कार्य को भी अपने लिए वरदान माना। पात्री को एक कोने में रखकर 'चउवीसत्थव' किया और फिर खिचड़ी को मिलाते हुए आत्मालोचन में लग गए—अरे! वे साधु-साध्वियां कितने धन्य और कृतपुण्य हैं जो तपस्या कर कर्ममल की शुद्धि कर रहे हैं। किसी के मासखमण है तो किसी के पाक्षिक। किसी के आठ दिनों की तपस्या है तो किसी के उपवास। मैं हूं पेट का ऐसा पुजारी कि एक समय भी बिना खाए नहीं रह सकता। मन का इतना गुलाम कि भूख को निकाल ही नहीं सकता। इससे अधिक निकृष्टता क्या हो सकती है? धिक्कार है मेरी इस अशक्यता को, दुर्बलता को। वे गृहस्थ श्रावक और श्राविकाएं भी कितने अच्छे हैं जो दान, शील, तप और भावना से अपने
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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