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________________ मैत्री भावना १३. मैत्री का आयाम पर्वाधिराज संवत्सरी का महान् पर्व । जैनपरम्परा का गौरवशाली धार्मिक अनुष्ठान । जन-जन इस धार्मिक पर्व की आराधना कर रहा था। अपने आपको अन्तर्मुखी बनाने का इससे अधिक स्वर्णिम अवसर ही क्या हो सकता था? वर्ष - भर की भूलों का सिंहावलोकन और आत्मालोचन करने का यह अपूर्व दिन था। सबके प्रति मैत्री की भावना कर अपने अन्तःकरण को निःशल्य और हल्का करने का यह महान् प्रयोग था । सिन्धु-सौवीर के अधिशास्ता महाराजा उद्रायण। आज वह राजकीय कारणों से यात्रा पर गया हुआ था। उसने उज्जयिनी पर आक्रमण किया और अपने प्रतिपक्षी चण्डप्रद्योत को बंदी बनाकर अपनी राजधानी की ओर प्रस्थान कर दिया। चण्डप्रद्योत उज्जयिनी का शक्तिशाली शासक था, किन्तु अपनी तुच्छ वृत्तियों के कारण बदनाम और लोगों की दृष्टि में तिरस्कृत था । वह सदा रूप का उपासक, कामभोगों में लिप्त, कामुक और विलासी था। जब भी उसे कहीं या किसी के द्वारा सुन्दर रूप की भनक पड़ जाती, तत्काल वह उसे प्राप्त करने के लिए दौड़ पड़ता। अपनी इस कामुकवृत्ति के कारण उसने कितनी कन्याओं का अपहरण किया और कितनी कन्याओं के साथ व्यभिचार किया। उसकी वह कामान्धता चरमशिखर पर पहुंच चुकी थी। ऐसी एक नहीं अनेक घटनाएं उसके जीवन साथ के जुड़ी हुई थीं। एक बार उसने कहीं से महारानी मृगावती का चित्र- फलक देख लिया। वह उसके अद्भुतरूप पर मुग्ध हो गया। उसने दूत भेजकर शतानीक से मृगावती की मांग की। शतानीक ने कड़ी भर्त्सना के साथ उसे ठुकरा दिया। चण्डप्रद्योत क्रुद्ध होकर वत्स देश की ओर चल पड़ा। शतानीक घबरा गया। उसके हृदय पर आघात लगा । उसे अतिसार का रोग हो गया और असमय में ही वह इस संसार से चल बसा। पीछे
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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