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________________ स्वकथ्य मनुष्य आधि, व्याधि और उपाधि से अभिभूत बना हुआ त्रिकोणात्मक जीवन जी रहा है। आज की भाषा में कहा जा सकता है कि वह शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रोग से पीड़ित है। शारीरिक और मानसिक रोगों की चिकित्सा के लिए नाना प्रकार की चिकित्सा-सुविधाएं उपलब्ध हैं। किन्तु भावनात्मक चिकित्सा के लिए स्वतन्त्र रूप से न कोई चिकित्सालय है, न कोई चिकित्सा और न कोई चिकित्सक। हमारी अस्वस्थता का मूल बिन्दु है भावनात्मक अस्वास्थ्य। निषेधात्मक भाव प्रतिपल उस अस्वास्थ्य का सिंचन कर रहे हैं, फिर मनुष्य को स्वास्थ्य कहां से उपलब्ध हो सकता है? उन निषेधात्मक भावों का उद्गमस्थल है-मस्तिष्क का वह अग्रभाग जिसे मेडिकल साइंस में हाईपोथैलेमस-भावनात्मक केन्द्र कहा जाता है। जितने भी आवेग-संवेग आदि भाव उभरते हैं उन सबका यही केन्द्रबिन्दु है। मनुष्य आधि-व्याधि की चिकित्सा करना जानता है, किन्तु उपाधि की चिकित्सा अभी तक भी उसके लिए अज्ञात बनी हुई है। एक प्रकार से सारी चिकित्सा प्रतिबिम्ब और प्रतिक्रिया की हो रही है। उपाधि तक पहंचा ही नहीं गया। एक डॉक्टर शरीर की बीमारी का भलीभांति इलाज कर सकता है। एक मनोवैज्ञानिक मन की बीमारी को मिटा सकता है, किन्तु कषायात्मक आवेगसंवेग आदि की चिकित्सा असाध्य और दुरूह है। अध्यात्म के आचार्यों ने इस मूलरोग की चिकित्सा के लिए कुछेक बिन्दुओं को खोजा, जिनमें ज्ञानयोग, दर्शनयोग, तपोयोग और भावनायोग परम उपयोगी सिद्ध हुए। ___भावना या अनुप्रेक्षा एक आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धति है। यह जीवन को रूपान्तरित करने की प्रक्रिया है। जैन-साधना-पद्धति में दोनों का ही विशेष महत्त्व रहा है। जब तक भावधारा को नहीं बदला जाता तब तक मनुष्य का आचार और व्यवहार भी नहीं बदल सकता। पाश्चात्य देशों में भावधारा
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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