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________________ ९४ शान्तसुधारस सके, तो फिर अन्य कौन किसे पाप (मिथ्या - आग्रह ) से रोक पाएगा? अतः औदासीन्य- माध्यस्थ्य भावना ही आत्मा के लिए हितकर है। ४. 'अर्हन्तोऽपि प्राज्यशक्तिस्पृशः किं, दद्युः शुद्धं किन्तु धर्मोपदेशं, धर्मोद्योगं कारयेयुः प्रसह्य ? यत्कुर्वाणा दुस्तरं निस्तरन्ति ॥ प्रचुर शक्ति - सम्पन्न अर्हत् भी क्या बलपूर्वक किसी दूसरे से धर्म का अभ्यास करा सकते हैं? किन्तु वे शुद्ध धर्म का उपदेश देते हैं। उसका आचरण करते हुए मनुष्य दुस्तर भव-समुद्र का पार पा जाते हैं। तस्मादौदासीन्यपीयूषसारं, आनन्दानामुत्तरङ्गत्तरङ्गै ५. वारं वारं हन्त ! सन्तो! लिहन्तु । वद्भिर्यद्भुज्यते मुक्तिसौख्यम् ।। अतः हे सत्पुरुषो! तुम औदासीन्यरूपी अमृतसार का बार-बार आस्वादन करो, जिससे कि जीते जी मनुष्य आनन्द की उत्ताल तरंगों से मुक्तिसुख का अनुभव कर सकें। गीतिका १६ : प्रभातीरागेण गीयते अनुभव विनय ! सदासुखमनुभव औदासीन्यमुदारं रे! | कुशलसमागममागमसारं, कामितफलमन्दारं रे ! ॥१॥ हे विनय ! तू अनुभव कर, निरन्तर सुख देने वाले उदार औदासीन्य का अनुभव कर, जो कल्याण का समागम ( प्राप्ति) करने वाला, आगम का सार और इच्छित फल के लिए कल्पवृक्ष - तुल्य है। परिहर परचिन्तापरिवारं चिन्तय निजमधिकारं रे ! | तव किं कोऽपि चिनोति करीरं, चिनुतेऽन्यः सहकारं रे || २ || " १. शालिनी । २. प्रभूतां शक्तिं स्पृशति इति विग्रहे कृते 'स्पृशोऽनुदके' (भिक्षु. ५/२/ ८०) इति सूत्रेण स्पृशेः क्विप्प्रत्ययः । ३. शालिनी । ४. निजमविकारमित्यपि पाठः । ५. तव किं इति स्थाने वदति इत्यपि पाठ उपलभ्यते ।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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