SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती में महावीर - गौतम संवाद इस समस्या का सही समाधान है। शरीर आत्मा है या आत्मा से भिन्न तत्त्व है ? गौतम के इस प्रश्न को अनेकांतिक शैली से उत्तरित किया। महावीर ने कहा- गौतम ! शरीर आत्मा भी है, आत्मा से भिन्न तत्त्व भी है। आत्मा चेतन है । शरीर जड़ है। जड़-चेतन कभी एक नहीं होते। इस दृष्टि से भिन्न हैं । आत्मा की पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति का माध्यम शरीर है। इस दृष्टि से अभिन्न है। इस प्रकार आगम साहित्य में आत्मा के बारे में काफी वर्णन मिलता है। आचार्य जिनभद्र, वीरसेन, सिद्धसेन, कुंदकुंद आदि ने भी भेदाभेद पर प्रकाश डाला है। धवला में इसे स्पष्ट करने वाली कुछ युक्तियां उपलब्ध हैं, जैसे १. शरीर और जीव भिन्न हैं क्योंकि शरीर सादि-सांत है। जीव अनादिअनंत है। २. सभी शरीरों में जीव का अनुगम होता है किन्तु शरीर का अनुगम नहीं होता । ३. शरीर का छेदन - भेदन, दहन होता है, जीव का नहीं । " तीसरे गणधर वायुभूति के मन में यही संशय था - 'जीव शरीर से भिन्न है या अभिन्न ?' आगम युग और दर्शन युग- दोनों युगों में यह विषय चर्चित रहा है। आधुनिक युग में देकार्त का द्वैतवाद विख्यात है। देहात्म समस्या के समाधान के लिये उसने काफी योगदान दिया है और नये ढंग से व्याख्या की है। पहले दार्शनिकों के मत से आत्मा और शरीर एक ही तत्त्व के दो पहलू के रूप में थे। दोनों सापेक्ष थे। देकार्त ने दोनों को निरपेक्ष रूप में स्वीकार किया है । शरीर भौतिक गुणों का विस्तार है। आत्मा चैतन्य गुण है, आत्मा अमूर्त है, शरीर मूर्त है, आत्मा अभौतिक है, शरीर भौतिक है, आत्मा द्रष्टा है, शरीर दृश्य है, इन विपरीत गुणों से आत्मा और शरीर की भिन्नता सिद्ध है। महान दार्शनिक प्लेटो ने भी व्यवहार और परमार्थ, वस्तु और विज्ञान, ऐन्द्रिय और प्रत्यक्ष जगत, आत्मा और शरीर का द्वैत स्वीकार किया है। अन्तर्क्रियावाद अरस्तु ने भी द्रव्य और आकार के द्वैत का प्रतिपादन किया है। देकार्त से पूर्व स्पिनोजा का मन्तव्य अलग था । वह अद्वैतवादी होने से शरीर और मन को पाश्चात्य एवं जैन दर्शन का प्रस्थान समन्वय की भूमिका ७५
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy