SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यदि मानसिक चिन्तन से आत्मा का अनुभव होता है तो मानसिक चिन्तन का अनुभव सदा उत्तेजना एवं मनोवेग के रूप में होता है। अतः इन्हें आत्म-द्रव्य नहीं कहा जा सकता। आत्म-द्रव्य गुण समवाय का नाम है। ह्यूम आत्मा को सरल (Simple) और शाश्वत (Eternal) के रूप में न मानकर मानसिक क्रियाओं के समूह रूप में देखता है। उसका अभिमत है There is properly no simplicity in the self at one time nor identity in different time. अर्थात् इनमें न तो किसी एक समय सरलता होती है और न भिन्न-भिन्न समयों में तादात्म्य ही। इस प्रकार हम देखते हैं कि ह्यूम ने विचारों के समूह को ही आत्मा स्वीकार किया है, यह ठीक नहीं। विचार परिवर्तनशील है तो प्रवाह भी परिवर्तनधर्मा है। अतः उसके मत से आत्मा भी स्थिर नहीं है। दूसरी बात विचारक के अभाव में विचार असंभव है। ह्यूम ने जिस रूप में आत्मा को स्वीकार किया, जैन दर्शन के साथ समानता नहीं हो सकती। क्योंकि जैनों ने आत्मा को भावात्मक प्रत्यय के रूप में मान्य किया है। जैन दर्शन परिणामी नित्यवाद को मानता है। ह्यूम के दर्शन में विचारों के समूह' के अतिरिक्त कोई नित्यात्मा नहीं है। __ ह्यूम ने नित्य आत्मा को प्रवाह रूप में क्षणिक स्वीकार किया है तो जो आपत्तियां बौद्धों के क्षणिकवाद पर आती हैं उन्हें ह्यूम के आत्मवाद पर भी घटित किया जा सकता है। अतः ह्यूम का आत्मा के संदर्भ में अनित्य एकान्तवादी दृष्टिकोण तर्कसंगत नहीं है। काण्ट (1424 ई. से 1804 ई.) मानव विचारधारा के इतिहास में उन्नीसवीं सदी का महत्त्व अधिक रहा है। अनेक विचारों की उद्गम स्थली यही सदी है। काण्ट इस युग का ख्यातनामा दार्शनिक है। आत्मा के सम्बन्ध में उसके विचार देकार्त एवं ह्यूम से भिन्न हैं। वह देकार्त की तरह आत्मा को न ज्ञेय मानता है न ह्यूम की तरह विचारों का प्रवाह ही। उसके अभिमत से आत्मा नित्य है, शाश्वत है। उसने आत्मा के स्वरूप को एक शब्द में इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है-The soul is transcendental पाश्चात्य एवं जैन दर्शन का प्रस्थान : समन्वय की भूमिका
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy