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________________ अतिरिक्त दूसरा करण बन नहीं सकता। अतः स्पष्ट है, इन्द्रियां आत्मा से भिन्न है। जैसे खिड़कियों से झांकने वाला खिड़कियों से भिन्न है।७९ इन्द्रियात्मवाद में एक दोष और भी है कि इन्द्रियां अनेक हैं। एक शरीर में अनेक आत्माओं का निवास मानना भी न्यायसंगत नहीं है। ३. मानसात्मवादियों ने मन को आत्मा स्वीकार किया है। मन अचेतन है। वह चैतन्य का आधार कैसे होगा? मन को आत्मा कहना किसी दृष्टि से उचित नहीं है। ४. प्राण को आत्मा मानना, प्राणात्मवादियों का मन्तव्य ठीक नहीं लगता। जैन दर्शन में प्राण के दो प्रकार हैं- द्रव्य प्राण, भाव प्राण। चार्वाक जिस प्राण को आत्मा कहता है वह जैन दर्शन का द्रव्य प्राण है। अचेतन है। आत्मा चैतन्य स्वरूप है। प्राण आत्मा का प्रयत्न विशेष है। प्राणों का आधार आत्मा है न कि प्राण आत्मा है। प्रश्नोपनिषद् में भी कहा है- प्राण का जन्म आत्मा से होता है। अतः प्राण तथा आत्मा एक नहीं, भिन्न हैं।८२ चार्वाक का अनात्मवाद पढ़ने के बाद लगता है कि उसका मन्तव्य निराधार है। आत्मवादियों के सबल प्रमाणों के समक्ष अस्तित्व खड़ा नहीं रह सकता। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद : आस्तिकवादी दर्शन आत्म विरोधी वैज्ञानिक प्रणालियों में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद भी एक है। द्वन्द्ववाद का अर्थ है-विरोधी स्वभावों के द्वन्द्व से तीसरे तत्त्व की उत्पत्ति। जैसे-हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का सम्मिश्रण जल तत्त्व को पैदा करता है। दोनों विरोधी स्वभाव हैं। एक प्राणनाशक है, ऑक्सीजन प्राणपोषक है। यह गुणात्मक परिवर्तन है। वस्तु का यौगिक परिवर्तन देखकर संभवतः भौतिकवादी इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। किन्तु भारतीय मनीषियों ने परिवर्तनशीलता की प्रक्रिया को सहस्रों वर्ष पूर्व से समझ रखा है। उनके लिये नया तत्त्व नहीं है। जैन दार्शनिकों को द्रव्य, उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यात्मक ही है। कोई भी मूर्त द्रव्य परिवर्तन के नियम का अतिक्रमण नहीं कर सकता। विश्व के मूल उपादान दो हैं- जीव और पुद्गल। .५६ - जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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