SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा की चर्चा कर आये हैं। किन्तु जैनागमों में स्थानांग एक सूत्र है। उसका प्रारंभ 'एगे आया' से होता है। प्रश्न उठता है, क्या इससे उपनिषद में वर्णित एकात्मवाद की पुष्टि नहीं होगी ? एक और अनेक का विरोधाभास कैसे ? प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। समाधान अनेकांत की भाषा में किया जा सकता है। जैन दर्शन एकांतवादी दर्शन नहीं है। अनेकांत उसका प्राण है। अनेकांत के आधार पर आत्मा व्यष्टि की अपेक्षा से अनेक और समष्टि की अपेक्षा से एक है। यह सापेक्ष दृष्टि है। आगम वाणी में उपनिषद् का एकात्मवाद और सांख्य का अनेकात्मवाद दोनों समाहित हैं। भगवती सूत्र का प्रसंग इसका प्रमाण है। सोमिल ब्राह्मण ने पूछाभंते ! आप एक हैं या दो ? आप अक्षय-अव्यय हैं या अनेक भूत भावों से भावित हैं? महावीर ने जो उत्तर दिया, वह विभज्यवाद का सूचक है। उन्होंने कहा-सोमिल ! मैं एक भी हूं, दो भी हूं। अक्षय-अव्यय भी हूं, अनेक भूत भाव से भावित भी हूं। द्रव्यत्व की अपेक्षा से एक हूं। उपयोग गुणयुक्त होने से दो भी हूं। उपयोग ज्ञान-दर्शन रूप है। आत्मा से संपृक्त है। इस दृष्टि से ज्ञाता एवं दृष्टा रूप दोनों हूं। इसी सूत्र के नवमें शतक में जीव नित्य है या अनित्य-प्रश्न किया गया है। महावीर ने कहा- जीव नित्यानित्य है, जीव का अस्तित्व त्रिकालवर्ती है, इसलिये वह नित्य है, शाश्वत है। दूसरे पक्ष में जीव अनित्य है क्योंकि नारक, देव, मनुष्य और तिर्यञ्च आदि अवस्थाओं में परिवर्तित होता रहता है। वस्तु का समग्र बोध करने के लिये उसके दोनों पक्षों को समझना होता है। अनेकांत रूप चिंतन में जीव नित्यानित्य है, शाश्वत-अशाश्वत रूप है। जीव सांत है तो अनंत भी है। द्रव्य-क्षेत्र की अपेक्षा से सांत है। कालभाव की अपेक्षा से अनंत है। आत्मा मूर्त-अमूर्त रूप है। स्वभाव से अमूर्त है लेकिन कर्म संयुक्त संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त है। शुद्ध द्रव्य के रूप में आत्मा स्वयं ज्ञान रूप है, ज्ञाता है। अशुद्ध द्रव्य के रूप में कर्म से आबद्ध आत्मा विविध रूपात्मक है। जीव का उद्गम कैसे? जीव का उद्गम कब से है ? उत्पत्ति कैसे हुई ? कहां से हुई ? ये प्रश्न आज भी मन-मस्तिष्क में रहस्य बने हुए हैं। दार्शनिकों और वैज्ञानिकों ने अपने-अपने ढंग से इन पर चिंतन किया है। आत्मा की दार्शनिक पृष्ठभूमि : अस्तित्व का मूल्यांकन २3.
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy