SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्य संग्रह", आदि पुराण'६, उत्तर पुराण५७, ज्ञानार्णव५८, उत्तराध्ययन९, श्रावकाचार६० आदि में आत्मा को चैतन्य स्वरूप, उपयोगमय, अनादि-निधन, ज्ञाता, दृष्टा, कर्ता-भोक्ता तथा देह परिमाण, संकोच-विस्तार वाली माना है। चैतन्य गुण आत्मा का स्वाभाविक गुण है, आगन्तुक नहीं। इस सम्बन्ध में तीन प्रकार की विचारधाराएं प्रचलित हैं१. न्याय, वैशेषिक और प्रभाकर भट्ट, जो आत्मा को जड़ स्वरूप मानकर चैतन्य को उसका आगन्तुक गुण मानते हैं। २. कुमारिल भट्ट चैतन्य को आत्मा का स्वाभाविक गुण मानते हैं लेकिन साथ ही उसे जड़ स्वरूप भी मानते हैं। ३. सांख्य, वेदान्त और जैन चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण न मानकर स्वाभाविक मानते हैं। अग्नि जैसे उष्ण स्वभाव वाली है६१ वैसे आत्मा भी चैतन्य गुण वाली है। द्रव्य का अपने गुण से भिन्न या गुणों का द्रव्य से भिन्न अस्तित्व नहीं है। आत्मा द्रव्य है। चैतन्य उसका गुण है। ज्ञान गुण आत्मा से पृथक् नहीं रह सकता इसलिये ज्ञान और आत्मा को एक माना है।६२ अग्नि और उष्ण गुण दोनों भिन्न मानने से अग्नि दहन आदि कार्य नहीं कर सकती। इसी प्रकार ज्ञान से भिन्न आत्मा भी पदार्थ को नहीं जान सकती और ज्ञान भी निराश्रित हो जाता है। जैन परम्परा में आत्मा का लक्षण उपयोग माना गया है। भगवती६३, स्थानाङ्ग६४, उत्तराध्ययन६५ आदि जैनागमों के अनुसार आत्मा उपयोग लक्षण वाली है। निशीथचूर्णि में स्पष्ट है जहां आत्मा है, वहां उपयोग है। जहां उपयोग है, वहां आत्मा है।६६ चेतना दो प्रकार की है- ज्ञान चेतना, दर्शन चेतना। आत्मा ज्ञान-दर्शनोपयोगमयी है। आत्मा का जो भाव ज्ञेय को ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त होता है उसे उपयोग कहते हैं।६७ उपयोग का अर्थ है-वस्तुबोध के प्रति आत्मा की प्रवृत्ति अथवा विषय की ओर अभिमुखता। उपयोग चैतन्य का अन्वयी परिणाम है। चैतन्य आत्मा का ऐसा लक्षण है जो पुद्गलादि अजीव द्रव्यों से व्यावृत करता है।६८ आत्मा के भेद-प्रभेद आत्मा असंख्य प्रदेशात्मक है, विशुद्ध है, उसके भेद नहीं होते। संसारी आत्मा कर्म संयुक्त है। अतः इन्द्रिय, मन, अध्यात्म, अनेकांत, शुद्धि-अशुद्धि .२० - जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy