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________________ अर्थात् जिस पदार्थ के गुण जहां होते हैं, पदार्थ भी वहीं होता है। आत्मा के ज्ञानादिगुण शरीर में उपलब्ध हैं, अतः आत्मा शरीरव्यापी है। आचार्य मल्लिषेण ने स्याद्वाद मंजरी में इस तथ्य को स्पष्ट निरूपित किया है आत्मा सर्वगतो न भवति, सर्वत्र तद्गुणानुपलब्धेः। यो यः सर्वत्रानुपलभ्यमानः सः सः सर्वगतो न भवति। यथा घट तथा चायम्। तस्मात् तथा व्यतिरेके व्योमाद् ।। विशेषावश्यक भाष्य भी इसका साक्ष्य है। जिस वस्तु के गुण जहां उपलब्ध नहीं हैं वह वस्तु वहां नहीं होती। जैसे अग्नि के गुण जल में अनुपलब्ध हैं अतः अग्नि जल नहीं। इसी तरह चैतन्य पूरे शरीर में पाया जाता है। ___ आत्मा में संकोच-विकोच की शक्ति के कारण भी देह परिमाण की सिद्धि होती है। जैन दर्शन के अनुसार संसारी जीवों में पुद्गलों का स्वीकरण और क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है। इसलिये आत्मा का परिमाण एक जैसा नहीं रहता। संकोच-विकास चलता रहता है। यह क्रिया स्वाभाविक नहीं, कार्मण शरीर सापेक्ष है। आत्मा के संकोच-विस्तार की तुलना बल्ब के प्रकाश से की जा सकती है। बल्ब को किसी छोटे पात्र में रखा जाये तो प्रकाश उतने में व्याप्त रहेगा। पात्र बड़ा हो तो प्रकाश भी फैल जायेगा। पात्र के अनुपात में प्रकाश का संकोच-विस्तार होता रहेगा। आत्मा भी अपने कर्मानुसार जब हाथी का शरीर छोड़कर चींटी या सूक्ष्मतम निगोद के शरीर में प्रवेश करती है तो अपनी संकोच शक्ति के कारण अपने प्रदेशों को संकुचित करके उसमें रहती है, और चींटी का जीव मरकर जब हाथी का शरीर पाता है तो जल में तैल बिन्दु की तरह फैलकर संपूर्ण शरीर में व्याप्त हो जाता है। चेतना और विस्तार का सहवस्थान देखकर प्रश्न पैदा होता है कि दोनों का साथ कैसे ? क्योंकि चित् का लक्षण चेतना और अचित् का लक्षण विस्तार है। पाश्चात्य दार्शनिक देकार्त ने चित् और अचित् को अलग-अलग माना है। जैन दर्शन का अपना अभिमत है कि जीव का विस्तार भौतिक तत्त्वों जैसा लम्बाई-चौड़ाई वाला नहीं होता बल्कि इसका विस्तार रोशनी के विस्तार जैसा है। जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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