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________________ अनात्मवादी आत्मा नहीं है इसका प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकते क्योंकि खण्डन करने वाला भी कोई आत्मा ही होगा। जिसके प्रतिपक्ष का अस्तित्व नहीं, उसके अस्तित्व को तार्किक समर्थन नहीं मिल सकता। यदि चेतन नामक सत्ता नहीं होती तो 'न चेतन-अचेतन' इस अचेतन सत्ता का बोध ही नहीं होता। किसी भी व्यक्ति को प्रत्यक्ष सिद्ध वस्तु में संदेह नहीं रहता। परोक्ष वस्तु प्रत्यक्ष न होने से विचार-भेद सामने आते हैं। यदि साधक प्रमाण बलवान हो तो परोक्ष भी स्वीकार्य हो जाता है। बाधक प्रमाण बलवान हो तो अस्तित्व को नकार दिया जाता है। आत्मा प्रत्यक्ष नहीं, प्रत्यक्ष होती तो भारतीय दर्शन का संभवतः इतना विकास नहीं हो पाता। प्रत्यक्ष नहीं है इसीलिये उसका चिन्तन, मनन, अन्वेषण किया जाता है। आत्म-परिमाण दार्शनिक जगत में आत्मा का स्वरूप जितना चर्चित विषय है, उतना ही अधिक आत्म-परिमाण का है। इस संदर्भ में विभिन्न कल्पनाएं परिलक्षित होती हैं। न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, शांकर वेदान्त आदि आत्मा को आकाश की तरह व्यापक स्वीकार करते हैं। रामानुज, माध्वाचार्य, वल्लभ, निम्बार्काचार्य आदि मुख्य हैं जो आत्मा को अणु परिमाणयुक्त मानते हैं।३८ अणु यानी बाल के हजारवें भाग के समान और हृदय में निवास करता है। __ उपनिषदों में आत्मा को व्यापक, अणु और शरीर प्रमाण कहा है। कौषीतकी उपनिषद् में व्याख्या है-जैसे तलवार अपनी म्यान में, अग्नि अपने कुंड में व्याप्त है उसी प्रकार आत्मा शरीर में नख से शिखा तक व्याप्त है।३९ यह आत्मा शरीरव्यापी है।४० आत्मा चावल या जौ के दाने के परिमाण की है। कुछ लोग अंगुष्ठ परिमाण भी मानते हैं।४२ कुछ ने बालिश्त परिमाण भी कहा है।४३ उपनिषद् में कोई सुनिश्चित विचारधारा नहीं है। मैत्री उपनिषद् में अणु से अणु, महान से महान भी स्वीकार किया है।४४ तैत्तिरीय उपनिषद् में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय-इन सब आत्माओं को शरीर परिमाण कहा है।४५ __ जैन दर्शन के अनुसार आत्मा न व्यापक है, न अणु, अपितु वह देहपरिमाण है। अणु-परिमाण मानने से कई दोषों का आविर्भाव होता है। अणु मानने से शरीर के जिस भाग में आत्मा रहेगी उस भाग में होने वाली संवेदना का ही अनुभव होगा। संपूर्ण शरीर की संवेदना नहीं हो सकेगी तथा इन्द्रियों -जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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