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________________ वचन योग, मनोयोग एवं बादरकाय योग को छोड़कर सूक्ष्मकाय का योग आलंबन लेता है। सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति नामक तृतीय ध्यान प्रारंभ करते हैं। आयु कर्म की स्थिति यदि अन्तर्मुहूर्त और वेदनीय, नाम, गोत्र की स्थिति अधिक हो तब महानिर्जरा के लिये समुद्घात क्रिया होती है। इससे सामंजस्य स्थापित होता है। प्रथम समय में दण्ड रूप में आत्म- प्रदेशों९९ को विस्तीर्ण करते हैं। दूसरे में कपाट रूप में चौड़े फिर प्रतर तथा चौथे समय में विस्तारित आत्म-प्रदेशों द्वारा समस्त लोक को आपूर्ण करते हैं। इस प्रकार तीन कर्मों की स्थिति को घटाकर आयु के समान कर देते हैं । पुनः विसर्पण का संकोच करके आत्म- प्रदेश शरीर में समा जाते हैं। इस प्रविधि का कालमान आठ समय का है। इस तरह सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति ध्यान किया जाता है। यह क्रिया नाभिकीय संलयन जैसी है। इसके बाद समुच्छिन्न क्रिया नामक ध्यान शुरू होता है। इसमें श्वासोच्छ्रास आदि समस्त काय, वचन और मन सम्बन्धी व्यापारों का निरोध किया जाता है। शैलेशी अवस्था प्राप्त कर सिद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार तप और ध्यान की साधना से अष्ट कर्मों को अपघटित किया जाता है। उनकी आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है। कर्म-क्षय से आत्मा के अष्टगुण अनन्तज्ञान आदि अनावृत हो जाते हैं । सयोगी केवली की समुद्घात क्रिया को नाभिकीय संलयन कहा जाता है। इसकी ऊर्जा के समान ही तपध्यान की ऊर्जा कर्मों को भस्म कर देती है । आत्म-प्राप्ति के साधनों में तप और ध्यान का महत्त्व सार्वजनीन एवं सर्वोपरि है। जैन दर्शन में तपस्या को संवर - निर्जरा का साधन माना गया है। तप धर्म का प्राण तत्त्व है। तप दुर्धर और प्रगाढ़ कर्मों को भी अति तीक्ष्ण वज्र की भांति तोड़ देता है । ,,१०१ " तपसा चीयते ब्रह्म १०० " तपो द्वन्द सहनम् " " च।”१०२ ये सूक्त तप की महत्ता का संगायन करते हैं। 'तपसा निर्जरा ८८ ध्यान भी तप का ही एक प्रकार है। भाव - श्रमण ध्यान रूप कुठार से भव वृक्ष (संसार-चक्र) को काट डालते है । १०३ आगम ग्रंथ एवं दार्शनिक साहित्य में ध्यान के सम्बन्ध में प्रभूत वर्णन प्राप्त है। उपनिषदों में भी ध्यान की विधि एवं महत्त्व का विस्तार से वर्णन मिलता है। शरीर में जैसे मस्तिष्क मोक्ष का स्वरूप : विमर्श २३७०
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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