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________________ उदाहरण के लिये जैसे पारा और ऑक्सीजन के समान अनुपात में मिलने पर 'मरक्यूरिक ऑक्साइड' यौगिक बनता है। इन यौगिक अणुओं के बीच में विद्युत संयोजी बंध होता है। जब उसे उच्च ताप पर गर्म करते हैं तो इनके मध्य का आकर्षण बल विद्युत संयोजी बंध समाप्त हो जाता है तथा पारा और ऑक्सीजन शुद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं । ९६ मरक्यूरिक ऑक्साइड के समान ही एक सजीव यौगिक है जो आत्मा और कर्म पुद्गलों के योग से निर्मित है। इस यौगिक के बनने में मूल कारण है - स्निग्धता / रागादिभाव । रागादिभाव से आत्मा कर्मों से लिप्त हो जाती है । तब आत्मा पर कर्मों का बंधन होता है। आत्मा स्व-स्वभाव को भूल जाती है । जन्म-मरण के चक्र में फंस जाती है। आत्मा और कर्म का सजीव यौगिक है। दोनों तत्त्वों के बीच राग का भाव बंध और कर्मों का द्रव्य बंध रूप आकर्षण बल है। इस यौगिक से आत्मा अपनी शुद्ध अवस्था को प्राप्त तब करती है जब राग रूप आकर्षण बल टूट जाता है। तोड़ने का उपाय है-तप । सजीव यौगिक विद्युत अपघटन (इलेक्ट्रो लाइट) पदार्थ है। इसमें आत्मा पर धन आवेश (+) तथा कर्म पर ऋण आवेश (-) है। इस अपघटन में अनादि काल से अधर्म - मिथ्यात्व का 'एनोड' पड़ा है। जब धर्म - सम्यग्दर्शन आदि का कैथोड डालकर तप की बैटरी से जोड़कर विद्युतधारा प्रवाहित की जाती है तब धारा के प्रभाव से राग का आकर्षण बल क्षीण होकर टूटने लगता है। आत्मा और कर्म पृथक् होकर अपने विपरीत आवेश के इलेक्ट्रोड की ओर जाने लगते हैं अर्थात आत्मा धर्म कैथोड की ओर प्रस्थित हो जाती है और कर्म एनोड की ओर निकल जाते हैं। जब यह क्रिया पूर्ण हो जाती है तब आत्मा अपनी शुद्ध अवस्था में आ जाती है । " ९९ कर्म-मुक्ति के मुख्य दो तत्त्व हैं-संवर, निर्जरा। दूसरे शब्दों में त्याग और तप । कर्मों में प्रधान है-मोह कर्म । मोह विलय की दो प्रक्रियाएं हैं- उपशमक्षपक। जिसमें मोह उपशांत हो जाता है वह उपशम श्रेणी है और जिसमें मोह क्षीण होता है वह क्षपक श्रेणी है। आठवें गुणस्थान से ये श्रेणियां प्रारंभ होती हैं। जिसका नाम है- अनिवृत्ति बादर गुणस्थान । अपर नाम 'अपूर्वकरण' है इसलिये कि इस समय परिणाम इतने विशुद्ध होते हैं जो अभूतपूर्व हैं। कर्म-क्षय की यह प्रक्रिया जैन दर्शन के सूक्ष्म चिंतन की प्रतीक है। मोक्ष का स्वरूप : विमर्श २३५०
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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