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________________ नहीं आता जिससे मोक्ष-सुखों को उपमित किया जा सके। अवर्णनीय है। अनुपमेय है। अतुलनीय है। स्वर्ग७३ में देवों के त्रैकालिक सुखों को अनंत से गुणा किया जाये तो भी मोक्ष-सुख के एक क्षण के सुख की तुलना में नहीं आ सकते। उसी प्रकार एक मुक्तात्मा के सर्व काल की संचित सुखराशि को अनंत वर्गमूल से विभाजित करने पर जब एक समय की सुखराशि शेष रहे, वह भी सारे आकाश में समा नहीं सकती।७४ निर्वाण शब्द की व्याख्या भी दुःख निवृत्ति और सुख के आत्यन्तिक स्वरूप की ओर ही संकेत है। अभिधम्म महाविभाषा में 'निर्वाण' शब्द की व्युत्पत्तियां इस प्रकार हैं-निर का अर्थ है छोड़ना। 'वाण' का अर्थ पुनर्जन्म, अर्थात् पुनर्जन्म के सभी रास्तों को छोड़ देना। दूसरा अर्थ है- वाण यानी दुर्गन्ध, निर् यानी नहीं। दुःख देने वाले कर्मों की दुर्गन्धता से पूर्णतया मुक्त है। 'वाण' का तीसरा अर्थ घना जंगल है और निर् का अर्थ है स्थायी रूप से छुटकारा पाना । 'वाण' का चतुर्थ का अर्थ है बुनना। निर् का अर्थ नहीं है। अतः निर्वाण ऐसी स्थिति है जो सभी प्रकार के दुःख देने वाले कर्म रूपी धागों से जो जन्म-मरण का धागा बुनते हैं उनसे पूर्ण मुक्ति है। मुक्तात्मा की अवगाहना (आकार) जिस शरीर से जीव मुक्त होता है ७५, उस शरीर का जितना आकार होता है उससे तृतीय भाग न्यून विस्तार क्षेत्र में आत्म-प्रदेश व्याप्त हो जाते हैं। अंतिम शरीर से तृतीय भाग न्यून होने का कारण है शरीर में कुछ अंगोपांग खोखले होते हैं। उनमें आत्म-प्रदेश नहीं होते। इस दृष्टि से न्यूनता का उल्लेख है। मुक्तात्माओं में जो आकृति की कल्पना की गई है। वह अंतिम शरीर के आधार पर है। उनमें रूपादि का अभाव है। तथापि आकाश प्रदेश में जो आत्मप्रदेश ठहरे हुए हैं उस अपेक्षा से आकार कहा है। प्रश्न यह है- मुक्त जीवों के शरीर नहीं है इसलिये आत्म-प्रदेश या तो अणुरूप या व्यापक क्यों नहीं होते? पूर्व जन्म की अपेक्षा तृतीय भाग न्यून कहा है इसके पीछे रहस्य क्या है ? समाधान यह है- संसार अवस्था में जीव को शरीर परिमाण माना है। अणु या व्यापक नहीं। अतः मोक्ष में भी अणु और व्यापक नहीं हो सकती। आत्मा में जो संकोच-विस्तार की क्षमता कर्मजन्य मोक्ष का स्वरूप : विमर्श २२७.
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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