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________________ मुक्ति-स्थान स्वयं प्रकाशमय है, सूर्य-चन्द्र के प्रकाश की वहां अपेक्षा नहीं है। गोम्मटसार६३, धवला आदि में भी सिद्ध शिला का वर्णन है। सिद्ध शिला के पर्याय औपपातिक सूत्र में बारह नामों का उल्लेख है६४- १ ईषत्, २ ईषत् प्रारभारा, ३ तन, ४ तनूतनू, ५ सिद्धि, ६ सिद्धालय, ७ मुक्ति, ८ मुक्तालय, ९ लोकाग्र, १० लोकाग्र स्तुपिका, ११ लोकाग्र प्रतिबोधना, १२ निर्वाण । सिद्ध भगवान की वहां अवस्थिति के कारण उसे सिद्ध-क्षेत्र भी कहा जाता है। सिद्धों के भी अनेक पर्यावाची नाम हैं। औपपातिक आदि आगमों मेंसिद्ध, बुद्ध, पारगत, परंपरागत, उन्मुक्त, अजर, अमर, असंग आदि नामों का उल्लेख है। उववाईसूत्र६५ में सिद्ध अशरीरी तथा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन आदि गुणों में अवस्थित होते हैं। उत्तराध्ययन६६ अ.२३ में जीव के अमरत्व एवं निर्वाण के विषय में परूपित है कि 'वह सुरक्षित है, नित्य है एवं शांत है। वहां पहुंचना दुष्कर है फिर भी महर्षियों ने प्राप्त किया है। वे दुःखों से मुक्त, जन्म-मरण से मुक्त हैं। ज्योतिर्मय चैतन्य हैं।' तत्त्वार्थ सूत्र में कहा- निर्वाण में समस्त आस्रव एवं बंध के कारण निर्जीव हो जाते हैं। वैदिक दर्शन में मुक्तात्मा के अमृतत्व को नेति-नेति कहकर व्यक्त किया है। आचार्य शिवकोटि६८ ने सिद्धों के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया हैअकषायत्व, अवेदत्व, अकारकत्व, शरीर रहितत्व, अचेलत्व, अलेपत्व । सिद्धों के मौलिक गुण सिद्धों के मौलिक गुण आठ हैं। आठ कर्मों के क्षय होने से उन गुणों का आविर्भाव होता है१ केवल ज्ञान ५. अटल अवगाहन २ केवल दर्शन ६. अमूर्ति ३. असंवेदन ७. अगुरुलघु ४. आत्मरमण ८. निरंतराय समस्त कर्म समूह से पृथक् होते ही चार बातें घटित होती हैं१. औपशमिक भावों की व्युच्छित्ति, २. शरीर से मुक्ति, ३. ऋजुगति से ऊर्ध्वगमन, ४ लोकान्त में अवस्थिति।६९ मोक्ष का स्वरूप : विमर्श .२२५.
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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