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________________ प्रश्न यह उठता है कि आचार्य ने पहले सूर्य बाद में चांद के प्रकाश की चर्चा क्यों की? चन्द्र का प्रकाश सूर्य से कम है और चन्द्र की कलाएं भी घटती-बढ़ती रहती हैं। इसके पीछे हेतु यह है कि चन्द्र-प्रकाश सौम्य है, शीतल है। अतः परादृष्टि तक पहुंचते साधक की सौम्यता भी बहुत उच्च कोटि में पहुंच जाती है। योग वसिष्ठ ३६. में गुण स्थानों के समान ही चौदह भूमिकाएं और हैं। जैसे१. बीज जाग्रत - यह चेतना की सुषुप्त अवस्था है। २. जाग्रत - इसमें अहं और ममत्व का अत्यल्प विकास होता है। ३. महाजाग्रत - इसमें अहं और ममत्त्व विकसित हो जाते हैं। ४. जाग्रत-स्वप्न - मनो कल्पना की अवस्था है। ५. स्वप्न - स्वप्न चेतना की अवस्था। ६. स्वप्न-जाग्रत - यह स्वप्निल चेतना है। ७. सुषुप्ति - स्वप्नरहित निद्रा की अवस्था है। इन सात भूमिकाओं का सम्बन्ध अज्ञान से है। ज्ञान की अन्य सात श्रेणियां१. शुभेच्छा - कल्याण-कामना। २. विचारणा - सदाचार में प्रवृत्ति का निर्णय। ३. तनुमानसा __ - इच्छाओं-वासनाओं के क्षीण होने की स्थिति। ४. सत्त्वापत्ति - शुद्धात्म स्वरूप में अवस्थिति। ५. असंसक्ति ___- आसक्ति के निरसन की अवस्था। ६. पदार्थाभाविनी - भोगेच्छा का पूर्ण विलय। ७. तूर्यगा - देहातीत अवस्था। तुलनात्मक दृष्टि से चिंतन करने पर लगता है जैन परम्परा के गुणस्थान सिद्धान्त से उपरोक्त धारणाएं कितनी निकट हैं। आचार्य हरिभद्र ने योग विषयक ग्रन्थों में आध्यात्मिक विकास से सम्बन्धित सहयोगी कुछ तथ्यों का विकासवाद : एक आरोहण -२०९.
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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