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________________ जब तक अनंतानुबंधी कषाय, मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम या क्षय नहीं जो जाता वहां तक कोई भी जीव प्रथम गुणस्थान की सीमा को अतिक्रांत नहीं करता। इन प्रकृतियों के उदयजनित ही पहला गुणस्थान है। मिथ्यात्व की अल्पता होने पर इसी गुणस्थान के अंतिम चरण में आत्मा यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनावृत्तिकरण नामक ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया करता है। ग्रन्थि-भेद का कार्य बड़ा विषम है। आत्मा के आवरण कुछ शिथिल होते हैं तब वीर्योल्लास की मात्रा बढ़ती है। परिणामों में भी विशुद्धता आती है। इससे दुर्भेद्य ग्रन्थि को तोड़ने की योग्यता बहुत अंशों में प्राप्त कर लेता है। इसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं।२८ मिथ्यात्व मोहनीय के तीव्र उदय में आत्मा का स्वरूप की ओर न आकर्षण होता है न जिज्ञासा। जब मंदोदय होता है, तब आत्म स्वरूप प्राप्त करने की उत्कंठा जागती है। उस समय जो विशुद्ध परिणाम होते हैं उसे 'करण' कहते हैं । दर्शन मोह और चारित्र मोह के साथ आत्मा का यह गहरा संघर्ष है। इस संघर्ष में आत्मा की विजय यात्रा शुरू होती है। संघर्ष में कुछ आत्माएं परास्त हो जाती हैं। कुछ विजयश्री प्राप्त कर स्व-स्वरूप को पा लेती हैं। लक्ष्य उपलब्धि की यह प्रक्रिया जैन साधना में ग्रंथि भेद कहलाती है । ग्रंथि भेद करने में साधक का मनोबल और कौशल ही निमित्त होता है। इसमें शैथिल्य विफलता का द्योतक है। ग्रंथि के भेद का अर्थ है - प्रगाढ़ मोह का उन्मूलन । मोह का आवरण हटाने के लिये ग्रन्थियों का भेदन आवश्यक है। उनमें यथाप्रवृत्तिकरण प्रथम है। मोह कर्म की स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ सागरोपम है। यह घटकर जब एक कोड़ाकोड़ प्रमाण रह जाती है। तब यथाप्रवृत्तिकरण होता है इससे राग-द्वेष की सघन ग्रन्थि के निकट तक आता है किन्तु भेद नहीं पाता । अभव्य जीव भी वहां क जाकर पुनः लौट आता है क्योंकि ग्रंथि का भेदन कठिन है। पंचेन्द्रिय समनस्क प्राणी अनेक बार यथाप्रवृत्तिकरण कर लेता है। इससे नैतिक चेतना का उदय होता है। एक मुहूर्त यथाप्रवृत्तिकरण रहता है । प्रतिक्षण भावों की विशुद्धि होती रहती है। ग्रंथि के निकट पहुंच जाते हैं किन्तु राग-द्वेष के तीव्र प्रहारों से आहत होकर मूल स्थिति में रह जाते हैं। अनेक आत्माएं चिर काल तक युद्ध - मैदान में खड़ी रहती हैं। जय-पराजय कुछ भी नहीं। इसके बाद अपूर्वकरण २९ होता है। विकासवाद : एक आरोहण १९७०
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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