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________________ स्वरूप में अवस्थिति नहीं होती । व्यवहार में भी पहले वस्तु का यथार्थ बोध होता है। उसके बाद ही उसकी प्राप्ति के लिये प्रयास किया जाता है। अध्यात्म जगत् में भी यही प्रक्रिया है । मोहनीय कर्म, उसका परिणाम प्रथम तीन गुणस्थान में दर्शन शक्ति और चारित्र शक्ति का विकास इसलिये नहीं होता कि उन शक्तियों के प्रतिबंधक कर्म संस्कारों की तीव्रता है । पहली शक्ति दर्शन मोह की प्रबल है, दूसरी अनुगामिनी। पहली शक्ति के मन्द, मन्दतम होते ही दूसरी शक्ति भी निर्वीर्य बन जाती है । राग द्वेष ← क्रोध - मान ← माया ← लोभ मोहन कर्म चतुर्थ गुणस्थान में वे प्रतिबंधक कर्म संस्कार कम हो जाते हैं अतः यहीं से विकास प्रारंभ हो जाता है। प्रतिबंधक कषाय के स्थूल दृष्टि से ४ विभाग हैं - अनंतानुबंधी कषाय, जो दर्शन शक्ति का अवरोधक है। शेष तीन विभाग - अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन, चारित्र शक्ति के विघातक हैं। ममत्व ← प्रथम गुणस्थान आत्मा की अविकसित अवस्था है। इस भूमिका पर खड़ा व्यक्ति आधिभौतिक विकास भले कितना ही करले पर उसकी प्रवृत्ति लक्ष्य से शून्य ही रहती है । यह मिथ्या दर्शन की भूमिका है । यहीं अवस्थित सभी प्राणियों की स्थिति एक समान नहीं होती । कारण मोह का प्रभाव किसी पर गाढतम किसी पर गाढ होता है। साधक की यात्रा सूक्ष्म पड़ावों का विवेचन है। राह का पूरा नक्शा, बीच के पड़ाव, मील के किनारे पर पत्थर - सभी की ठीक सूचना है। गुणस्थान चेतन - विकास के मापक पेरामीटर हैं। पहला गुणस्थान है मिथ्या दृष्टि गुणस्थान ( Wrong Belief of Delusion)। यह अपक्रांति की अवस्था है । कर्तव्य - अकर्तव्य के विवेक का अभाव ही मिथ्यात्व है । वस्तु का अयथार्थ बोध मिथ्यात्व है । यथार्थ बोध में बाधा अहंकार की है । सत्य की प्राप्ति के लिये अस्मिता का चोगा उतारना पड़ता है। आग्रह सत्य का हनन है । १९४ जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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