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________________ न्याय दर्शन के अनुसार शुभ-अशुभ आचरण से शुभाशुभ कर्मों का निर्माण होता है। उपनिषद् और बौद्ध दर्शन में भी नैतिक मूल्यों का समर्थन सांख्य, वेदान्त, योग आदि दर्शनों में नैतिक विकास के लिये भिन्न-भिन्न स्तरों पर गुणों का प्रतिपादन है। वैशेषिक के अभिमत से कर्तव्य सार्वभौम है जो अनिवार्य है। अहिंसा, सत्य, श्रद्धा, मन की शुद्धता के रूप में कर्तव्यों का उल्लेख है। सूत्रों-स्मृतियों, धर्मशास्त्रों में कर्तव्य-अकर्तव्य की विशद चर्चा है। पंचतंत्र आदि संस्कृत साहित्य में नैतिकता सम्बन्धी प्रचुर तथ्य प्राप्य हैं। काण्ट का कथन है-तुम्हें यह करना चाहिये क्योकि तुम कर सकते हो। अरस्तु, स्पेन्सर, अलेक्जेन्डर का भी इस दिशा में चिंतन रहा है। प्लेटो और अरस्तु से लेकर लेमाण्ट तथा समकालीन विचारकों में वारनर फिटे, सी.वी. गर्नेट, इस्राइल लेविन प्रभृति विचारक मानवीय गुणों के विकास में नैतिकता के प्रत्यय को महत्त्व देते हैं। आचारांग सूत्र में साधक के लिये अनेक नैतिक आदेश है। 'उट्ठिए णो पमायए'-उठो प्रमाद मत करो। 'अप्पमत्तो परिव्वए'-अप्रमत्त रहो। 'अल्लीण गुत्तो परिव्वए'–इन्द्रियों का निग्रह करना चाहिये आदि। चाहिये में कर सकने की स्वतंत्रता निहित है। संकल्प की स्वतंत्रता न हो तो नैतिक आदेश और नैतिक आदर्श दोनों अर्थशून्य बन जाते हैं और व्यक्ति को धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप, उचित-अनुचित आदि के लिये उत्तरदायी नहीं ठहरा सकते। संकल्प की स्वतंत्रता से ही वह अपने कर्मों के लिये जिम्मेदार है। भारतीय नैतिक चिंतन केवल नैतिक सिद्धान्तों का विश्लेषणात्मक अध्ययन ही नहीं, व्यावहारिक नैतिक जीवन से सम्बन्धित है। भारतीय विचारकों ने नैतिकता के प्रतिमान एवं नैतिक प्रत्ययों की सैद्धान्तिक समीक्षा इतनी नहीं की जितनी पश्चिमी दार्शनिकों ने। कुछ लोगों का मन भ्रान्त है कि भारतीय नैतिक चिंतन में केवल आचारनियमों का प्रतिपादन है। नैतिक समस्याओं पर कोई चिंतन नहीं हुआ। यह धारणा आधारशून्य है। अनेक समस्याओं का समाधान भारतीय चिंतन ने दिया है जो उसकी मौलिक प्रतिभा की अभिव्यक्ति है। विकासवाद : एक आरोहण .१८७.
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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